Vaidya Somraj Kharche, M.D. Ph.D. (Ayu) 07 Feb 2019 Views : 1600
Vaidya Somraj Kharche, M.D. Ph.D. (Ayu)
07 Feb 2019 Views : 1600

ठंडी का मौसम अब 'हेल्दी' क्यों नही रहा?

प्रायतः सर्दी का मौसम स्वाथ्यवर्धक (Healthy) समझा जाता है। जैसे ही ठंडी शुरू हो जाती है, लोग बिना वैद्यराज की सलाह लिए ही च्यवनप्राश शुरू कर देते है। कोई उडद के लड्डू बनाकर खाता है, तो कोई सूखे मेवे का। कुछ लोग सुबह सुबह जल्दी उठकर देसी घी डाला हुआ बादाम का शिरा खाना शुरू कर देते है। इतना सब करने के बावजूद भी समस्याएं तो उत्पन्न होती ही है। सर्दी, खाँसी जैसी क्षुद्र समस्याएं तो पीछा छोड़ती ही नही। आजकल तो सर्दी के मौसम में भी वायरल फीवर फैलने लगा है। पहले यह सिर्फ वर्षा ऋतु तक ही सीमित था। पर आजकल वायरल फीवर का कोई मौसम नही रहा। वर्ष के 12 महीनों तक इसका फैलाव चलता रहता है।
वर्तमान काल मे तो प्रत्येक ऋतु अपना पिछले साल का रिकॉर्ड तोड़ने पर आमादा है। वही स्थिती शीत ऋतु को भी लागू होती है। प्रत्येक नये वर्ष में आनेवाली सर्दी पिछले साल के रिकॉर्ड को तोड़ती है। इसका अर्थ तो यही हुआ न कि जितनी सर्दी अधिक, उतना स्वास्थ्य अधिक। वैसे इसे सच कहें, तो भी कोई अतिशयोक्ति नही है। फिर समस्या क्या है कि जिसकी वजह से सर्दी का शीत ऋतु लोगो के लिए स्वास्थ्यकारक होने की बजाय समस्याओं का पिटारा लेकर आता है?
जैसे ही शीत ऋतु आता है.....
किसी की त्वचा रूखी, सूखी होना शुरू हो जाती है। किसी की त्वचा के छिलके उतरना शुरू हो जाते है। 
किसी के पैरों में बिवाई (Cracks) फटने लगती है।
जिनको सोरियासिस है, उनमें से किसीका बढ़ने लगता है।
किसी को सिर में भयंकर रूसी (Dandruff) हो जाती है।
किसी की आंखे सूखी हो जाती है, तो उन्हें गीला रखने के लिए उसे सतत नेत्रबिन्दु (Eye drops) डालने पड़ते है।
किसी को संधिस्थानो में वेदना शुरू हो जाती है।
किसी को एकदम चिपचिपी (Sticky) संडास होती है। तो किसी को कब्ज (Constipation) हो जाता है। कब्ज वाले लोगो को रोज कोई न कोई मलप्रवर्तक (Laxative) औषधि लेनी ही पड़ती है।
किसी को पाचन की समस्याएं शुरू हो जाती है। पेट मे गुड़गुड़ आवाज आना शुरू हो जाता है। पेट खाने के बाद फूलता है।
किसी के पूर्ण शरीर पर खुजली शुरू हो जाती है। तो किसी को एकबार खाँसी शुरू हुई कि एक एक दो महीनों तक कम होती ही नही।
किसी को श्वास की समस्या उत्पन्न हो जाती है।
जब समस्याओं का इतना अम्बार ठंडी के मौसम में लगता है, तो ठंडी का ऋतु हेल्दी कैसे हुआ?
अच्छा, क्या ये सभी समस्याएं प्राचीन काल मे होती थी?
उत्तर है - नही...
तो क्या कारण हो सकता है कि शीत ऋतु वर्तमान में स्वास्थ्यकारक होने की बजाए रोगकारक हो गया है? इसका उत्तर है कि ऋतुचर्या तथा दिनचर्या का पालन न करना।
 ऋतुचर्या अर्थात ऋतु के अनुसार शरीर मे होनेवाले अहितकर बदलावों को रोकने के लिए आहारविहार में किया जानेवाला अस्थायी बदल और दिनचर्या का मतलब है कि शरीर मे स्थित जैविक घड़ी (Biological clock) के अनुसार क्रियाकलाप करना।
शीत ऋतु में जैसे जैसे ठंडी बढ़ती है, वैसे वैसे हवा में रुक्षता (Dryness) भी आती है। इस शीतलता तथा रुक्षता के कारण मनुष्य शरीर मे वातदोष बढ़ता है। इस वातदोष को नियंत्रण में रखने के लिए आयुर्वेद के दिनचर्या में रोज सुबह नहाने से पहले हल्के गर्म तैल से सम्पूर्ण शरीर की मालिश करने की सलाह दी है। मालिश में प्रयुक्त तैल अपनी स्निग्धता के कारण वातदोष को नियंत्रित रखता है और उपरोक्त सूची में दिए हुए व्याधि उत्पन्न होने से या बढ़ने से रोकता है।
बाह्य स्नेहन के इस प्रकार के साथ साथ शरीर की आभ्यंतर क्रियाओं में भी स्निग्धता बनी रहे और उनका कार्य सुचारू रूप से चलता रहे, इसलिये भी आयुर्वेद आहार में नित्य देसी घी खाने की सलाह देता है। परंतु क्या हम ये दोनों सलाह मानते है? 
पाश्चिमात्यों के अंधानुकरण में हमने मक्खन, घी, तैल खाना छोड़ दिया। क्योंकि पाश्चिमात्यों के अनुसार घी, मक्खन, तैल खाने से हृदय की नलिकाओं में अवरोध (Heart Blockage) उत्पन्न होता है। अगर मक्खन, घी खाने से हृदय में ब्लॉक हो जाता, तो भगवान कृष्ण को तो हार्ट अटैक ही आना चाहिए था। है न? घी, मक्खन, तैल न खाने की यह प्रवृत्ति शरीर मे और रुक्षता बढ़ाकर वातदोष को प्रकुपित कर देती है।
मालिश के लिए एक तो समय नही और है भी तो हम तेल से मालिश नही करते, बल्कि किसी बॉडी लोशन से करते है और यह बॉडी लोशन भी रुक्ष गुणात्मक पेट्रोलियम जेली से बना हुआ रहता है। मतलब अपनी त्वचा को स्निग्ध बनाने के चक्कर मे आप उसे और रुक्ष बनाते रहते हो। परिणामस्वरूप वातदोष बहोत ज्यादा बढ़कर प्रकुपित होता है और नाना तरह की व्याधियाँ उत्पन्न करता है।
शरीर पर इतने अत्याचार क्या कम थे, तो लोग आजकल कितनी भी ठंडी हो सिर पर टोपी नही पहनते या मफलर नही बांधते (मित्र हँसी मजाक उड़ायेंगे या फिर हेयर स्टाइल खराब होगी इसलिये)। आयुर्वेद के अनुसार कान यह वातदोष का अनेक प्राकृतिक स्थानों में से एक स्थान है। इसलिये दोनो कान अगर खुले रखे, तो शीत हवा के स्पर्श से कान के अन्दर स्थित वातदोष प्रकुपित हो जाता है। कान में हुई यह वातदोष की वृद्धि सर्वांगगत लक्षणों को उत्पन्न करने की क्षमता रखती है। इसलिये शीत ऋतु में कानों को खुला छोड़ने की वजह से सार्वदैहिक वातदोष की वृद्धि होकर पूरा शरीर दुखता है या सिर्फ मांसपेशियों में, विशेषता पिंडलियों (Calf Muscles) में ऐंठन पैदा हो जाती है।
इस प्रकार शीतकाल में अत्याधिक शीतलता की वजह से बढ़नेवाले इस वात को शांत करने के लिए आयुर्वेद द्वारा निर्देशित उपाय तो हम करते नही, ऊपर से जो भी आहारविहार करते है वो वातदोष को बढ़ानेवाला होता है। इसलिये आजकल ठंडी का मौसम स्वास्थ्यवर्धक होने की बजाय रोगकारक सिद्ध हो रहा है। अस्तु। शुभम भवतु।

© श्री स्वामी समर्थ आयुर्वेद सेवा प्रतिष्ठान, खामगांव 444303, महाराष्ट्र, भारत