Vaidya Somraj Kharche, M.D. Ph.D. (Ayu) 24 Jan 2019 Views : 1438
Vaidya Somraj Kharche, M.D. Ph.D. (Ayu)
24 Jan 2019 Views : 1438

चिकित्सा में धैर्य की भूमिका

कोई भी व्याधि की चिकित्सा लेते वक्त धैर्य (धीरज) रखना, संयम रखना स्वास्थ्यप्राप्ति के अत्यावश्यक है। दूसरे शब्दों में कहे तो धैर्य रखना ही स्वस्थ होने की कुंजी है। प्रस्तुत लेख की विषयवस्तु अत्यंत छोटी है परंतु वर्तमान काल मे अत्याधिक महत्वपूर्ण है।
हमारा देश, भारतवर्ष 1947 में स्वतंत्र हुआ। जितने भी बुजुर्ग आज घर मे है, सब स्वातंत्र्योत्तर काल मे ही जन्मे हुए है। भारत स्वतंत्र होने के बाद राष्ट्रीय चिकित्सा पद्धति के रूप में आयुर्वेद का उपनयन होना था। परंतु भारत के दूरदृष्टिविहीन तथा पाश्चिमात्यों का अंधानुकरण करने में ही अपनी इतिकर्तव्यता समझने वाले प्रथम राजकीय नेतृत्व ने एलोपैथी अर्थात आधुनिक चिकित्सा विज्ञान को ही भारत की राष्ट्रीय चिकित्सा पद्धति घोषित कर दिया और इस तरह से स्वतंत्र भारत मे भी एलोपैथी को राजाश्रय मिल गया। इसलिये एलोपैथी स्वतंत्र भारत मे बहोत फली -फूली। वामपंथी शिक्षा व्यवस्था के कारण एवं विदेशी होने के कारण तथा त्वरित फलदायी होने के कारण भारतीयों में एलोपैथी का आकर्षण बहोत बढा। इस बात का परिणाम यह हुआ कि लोग प्रत्येक छोटी मोटी स्वास्थ्य समस्या के लिए एलोपैथी ही पसंद करने के लगे। समाज की यह पसंद भी स्वाभाविक थी क्योंकि एलोपैथी के पास तीन ब्रह्मास्त्र है - एनाल्जेसिक, एनेस्थेसिया और एंटीबायोटिक। यह तीनों ब्रह्मास्त्र ऐसे है कि चलाते ही व्याधि छू-मंतर हो जाता है। बुखार आया और पेरासिटामोल ले ली कि कुछ ही मिनिटों में बुखार गायब हो जाता है। शरीर मे कही इंफेक्शन हुआ हो और एंटीबायोटिक लिया कि तुरंत कुछ ही घंटों में इंफेक्शन नियंत्रित हो जाता है। आधुनिक स्वास्थ्य विज्ञान की त्वरित कार्य करने की इस क्षमता ने वैद्यक जगत में क्रांति का सृजन किया। परंतु इसका अनिष्ट परिणाम यह हुआ कि कोई भी शारीरिक और मानसिक स्वास्थ्य समस्या को सहन करने की लोगो की सहनशक्ति (धैर्य, संयम) ही कम हो गयी। किसी भी बात में राह देखने की क्षमता नही रही। प्रत्येक वस्तु इंस्टंट चाहिए। फिर चाहे वो नूडल्स हो या कोई ऑनलाइन शॉपिंग की डिलीवरी हो या चिकित्सा का परिणाम हो। सुबह आये हुए बुखार को शामतक सहन करने की लोगो मे ताकत ही नही रही। काम शुरू करते ही परिणाम को सामने देखने की लोगो की मानसिकता बन गयी। चिकित्सा क्षेत्र में एलोपैथी लोगो की इस माँग पर खरी उतरी। इसलिये लोग द्रुतगति से एलोपैथी अपनाने लगे और अपनी ही धरोहर - आयुर्वेद को भूलते चले गए। भारतीय लोगो ने एलोपैथी को इतना अपनाया की अपने ही आयुर्वेदिक औषधियों को वे एलोपैथी की नजर से देखने लगे।
एलोपैथी ने लोगो को तत्काल राहत (Instant Relief) की आदत लगाई है। परंतु पूर्ण सत्य तो यह है कि एलोपैथी से भी सभी व्याधियों में सदा-सर्वकाल तत्काल राहत नही मिलती। समय तो लगता ही है। फिर भी 'आज नही तो कल' निश्चित परिणाम मिलेगा ही, इस मिथ्या आशावाद के कारण लोग एलोपैथी लेते रहते है और इस दरम्यान चिकित्सा के 7-8 वर्ष तो ऐसे ही निकल जाते है। परंतु 7-8 वर्ष के बाद जब उन्हें इस सत्य का ज्ञान होता है कि अब ये रोग एलोपैथी से भी ठीक नही होनेवाला, तब वे हारकर आयुर्वेद के पास आते है और 'एक ही चुटकी में इलाज' की अपेक्षा करते है। एलोपैथी में औषधि लेते लेते लोगो का आधा जीवन चला जाता है पर आयुर्वेद में आने के बाद उन्हें सप्ताहभर में ही परिणाम चाहिए होते है।
जैसे फुटबॉल के मैदान पर आप क्रिकेट नही खेल सकते, ट्रैन की पटरी पर बस (Bus) नही दौड़ा सकते, बस वैसे ही आयुर्वेद में आकर आप एलोपैथी जैसे त्वरित परिणामों की अपेक्षा नही कर सकते। व्याधि चिकित्सा के लिए आपको कुछ समय तो देना ही पड़ेगा। क्योंकि प्रत्येक शास्त्र के अपने कुछ नीति-नियम होते है। आयुर्वेद के भी एक शास्त्र के रूप में अपने कुछ नीति-नियम है। उन नियमों को अनदेखा कर आयुर्वेदिक चिकित्सा नही की जा सकती।
वस्तुतः अगर देखा जाए तो आयुर्वेद चिकित्सा से भी त्वरित परिणाम मिलते है। परंतु उसके लिए व्याधि अथवा अवस्था का निदान अचूक होना बहोत जरूरी है। क्योंकि आयुर्वेद में एलोपैथी जैसी लाक्षणिक चिकित्सा की विचारधारा स्वीकार्य नही है। आयुर्वेद प्रत्येक व्याधि का दोष स्वरूप (वातज, पित्तज, कफज इत्यादि) देखकर ही चिकित्सा प्रवृत्त होने का उपदेश करता है। सिर्फ लक्षणों के आधार पर चिकित्सा नही की जाती। परंतु यदाकदा लाक्षणिक चिकित्सा करने का प्रयत्न किया भी जाये तो चिकित्सा के स्थायी परिणाम नही मिलते। स्थायी परिणाम प्राप्त करने के लिए आयुर्वेदिक चिकित्सा लेते वक्त रोगी में धैर्य (धीरज) होना अत्यंत आवश्यक है।
अनेक बार यह देखा गया है कि वायरल फीवर (Viral fever) में कितनी भी आधुनिक औषधियाँ दे दो तीन चार दिन तक बुखार कम होता ही नही। पेरासिटामोल (Paracetamol) देने के बाद भी बुखार थोड़े समय के लिए ही उतरता है, बाद में फिर जैसे थे। इसी वायरल फीवर में दोष देखकर अगर आयुर्वेद चिकित्सा (मुहुर्मुहु काल औषध सेवन) की जाती है तो वायरल फीवर 3 दिन में ठीक होता ही है। ऊपर से बुखार के बाद जो दौर्बल्यता (Weakness) उत्पन्न होती है, वह आयुर्वेदिक चिकित्सा सेवन से नही आती। एंटीबायोटिक लेने से होनेवाले कब्ज, अम्लपित्त जैसे उपद्रव भी आयुर्वेदिक चिकित्सा से नही होते। मतलब दोनो शास्त्रों से एक ही व्याधि ठीक करने के लिए समय तो उतना ही लगता है। पर आयुर्वेद चिकित्सा के पश्चात शरीर मे जो उत्साह, तरोताजापन आता है वैसा एलोपैथी से नही आता।
वृक्क अकर्मण्यता (Kidney failure) के रुग्णों का भी ऐसा ही होता है। 4-5 वर्षो तक सप्ताह में 3 बार डायलिसिस करवाने के बाद जब आयुर्वेद की ओर आते है तब इन्हें 6 महीने में ही सकारात्मक परिणाम चाहिए होते है। क्रिएटिनिन और यूरिया के बार बार पैथोलॉजी रिपोर्ट्स करके 'अभी तक कम क्यों नही हुआ' यही डॉक्टर से पूँछते रहते है। ऐसा उतावलापन ही रुग्णों को मृत्युशय्या की ओर ले जाता है। धैर्य और विश्वास के साथ किसी तज्ञ आयुर्वेद डॉक्टर से पंचकर्म अगर किया जाए तो रोगी निश्चित रूप से पहले से अधिक स्वस्थ जीवन का अनुभव करता है।
एक रुग्ण महानुभाव छाती के सिटी स्कैन के रिपोर्ट लेकर आये। रिपोर्ट देखने के बाद ज्ञात हुआ कि उनका बाया फेफड़ा 60 प्रतिशत से ज्यादा खराब हो गया है। इतिहास पूछने पर उन महानुभाव ने बताया कि उन्हें रोज सुबह सुबह छींके आती है और साथ मे पूर्ण शरीर मे बहोत खुजली आती है। इससे व्यवसाय में व्यवधान उत्पन्न होता था। इसलिये पिछले 25 वर्ष से वो रोज सेटिरिजिन (Cetirizine) की गोली ले रहे है। आयुर्वेदिक औषधि क्यों नही ली, यह पूछने पर उन्होंने बताया कि आयुर्वेदिक औषधियों से ठीक होने में बहोत समय लगता है। यह धैर्यहीनता का उत्तम उदाहरण है। 25 वर्ष के बाद आयुर्वेद की शरण मे आने से अच्छा था कि पहले से ही धैर्य के साथ आयुर्वेदिक चिकित्सा अगर ली होती, तो अब तक रुग्ण शतप्रतिशत स्वस्थ हो जाता। परंतु शुरुआत में आयुर्वेदिक चिकित्सा लेने का धैर्य नही था और जब धैर्य बना लिया, तब तक काल अपना कर्म कर चूका था। उपरोक्त उदाहरणों के प्रस्तुतिकरण का मतितार्थ यही है कि आयुर्वेद की चिकित्सा लेना है तो धैर्य से काम ले। संयम रखें।
ईश्वर की सबसे सुंदर निर्मिति मानव है। इसे भी माता की कोख से जन्म लेने के लिए 9 महीने 9 दिन तो लगते ही है अर्थात जिस मानव शरीर का सृजन होने में ही 9 महीने लगते है, उसमे उत्पन्न व्याधियाँ एक ही चुटकी में कैसे ठीक होगी? कुछ तो धैर्य रखना ही पड़ेगा। सब्र का फल मीठा होता है ये कहावत ऐसे ही नही बनी। अस्तु। शुभम भवतु।
© श्री स्वामी समर्थ आयुर्वेद सेवा प्रतिष्ठान, खामगांव 444303, महाराष्ट्र, भारत