छाँछ : तथ्य और भ्रम
Butterlmilk : Fact & Fallacy
छाछ दही से निर्मित एक दुग्धविकृति है और भारतवर्ष का बच्चा बच्चा भी छाछ से परिचित है। अतःएव प्रस्तुत लेख में छाछ के परिचय की यत्किंचित भी आवश्यकता प्रतीत नही होती। छाछ हर घर मे बननेवाला एवं प्रभूत मात्रा मे पीया जानेवाला एक पेय है। आयुर्वेद मे भी छाछ की भूरि भूरि प्रशंसा की गई है और कहा गया है कि छाछ यह भूतल का अमृत है और यह देवराज इंद्र के लिए भी दुर्लभ है, अप्राप्य है। आयुर्वेद द्वारा इस प्रशंसा के कारण तथा अपने जिव्हाप्रिय गुणधर्मो के कारण छाछ जनमानस मे अतीव लोकप्रिय है। परंतु आयुर्वेद को अभिप्रेत (expected) छाछ और आज के छाछ तथा उसके गुणधर्मों में जमीन-आसमान का फर्क है और इसलिए आज पी जानेवाली छाछ भूतल का अमृत तो नही, बल्कि रोंगों का उगमस्थान जरूर बन चुका है।
आयुर्वेद के अनुसार छाछ के 5 प्रकार होते है।
1) घोल - छाछ के इस प्रकार को दही मे बिना पानी मिलाये मथकर बनाया जाता है। इसमे शक्कर मिलाने के बाद लस्सी बन जाती है। घोल शरीर का बल बढ़ाता है और शुक्र धातु की वृद्धि करता है। घोल का पान मन प्रसन्न करता है। जब बार बार प्यास लगती हो, रक्तविकार हो, शरीर मे कही पित्तजनित जलन हो तो घोल पिलाया जा सकता है। नाक से एकदम पानी जैसा स्राव बहनेवाली सर्दी हो तो शक्कर के साथ घोल पीना लाभदायक है ऐसा आयुर्वेद कहता है।
2) मथित - मथित मतलब इसमे भी दही बिना पानी मिलाये ही मथा जाता है। परंतु दही मथने के बाद जो मक्खन उपर जम जाता है, वो इसमे निकाल लेते है। घोल बनाते वक्त मक्खन नही निकाला जाता। जिनका कोलेस्ट्रोल, ट्रायग्लिसेराइड्स बढे हुए होते है, उन्हे मथित छाछ पीना चाहिए। यह कफ पित्त का शमन करता है। जब कफ गोंद जैसा चिकना होकर निकलता ही नही तब मथित छाँछ का अल्पमात्रा में सेवन उचित रहता है।
3) तक्र - जितना दही है, उसके चतुर्थांश पानी मिलाकर जो छाछ बनाई जाती है उसे तक्र कहा जाता है। आयुर्वेद मे जिस छाछ के गुणधर्म वर्णित है, वह यही है। जिस छाछ को देवराज इंद्र के लिए दुष्प्राप्य कहा गया है, वो भी यही है। परंतु इस छाछ के गुणधर्म पढकर लोग जो छाछ पीते है वो यह छाछ नही, बल्कि छाछ का ही दूसरा प्रकार छच्छिका है।
4) उदश्वित - जितना दही है, उससे आधा पानी मिलाकर जो छाछ बनाया जाता है, उसे उदश्वित ऐसा कहते है। मतलब 100 ग्राम दही मे 50 मिली पानी मिलाकर, उसे मथकर उदश्वित बनाया जाता है। इसे मथने के बाद मक्खन नही निकालते।
उदश्वित कफ बढ़ाता है। इसलिए पहले से ही कफ जिन व्याधियों में बढ़ा हुआ है उनमें उदश्वित का सेवन नही करना चाहिए।
5) छच्छीका : मलाई युक्त दही को प्रचुर मात्रा मे पानी डालकर मथकर जो प्रकार बनाया जाता है उसे छच्छीका कहा जाता है। इसमे से सम्पूर्ण मात्रा मे मक्खन निकाल लेते है। छाछ यह छच्छीका शब्द का ही अपभ्रंश है। छच्छीका गुणों मे शीतल होती है। जल्दी पच जाती है। यह पित्त का नाश करती है परंतु कफ उत्पन्न करती है। इसलिए जिन्हे कफ के रोग होते जैसे खाँसी, बारंबार छींक आना ऐसे लोगों को छच्छीका नही पीना चाहिए। छच्छीका मे सैंधव नमक मिलाकर पीने से यह भूख बढाती है।
गर्मी के दिनो मे छच्छीका पीनी चाहिए। न कि अन्य प्रकार
छाँछ कैसी होनी चाहिए?
आयुर्वेद को पीने के लिए जो छाँछ अभिप्रेत है वह ताजा होना अपेक्षित है। अर्थात बनाने के बाद तुरंत एक-दो घण्टे के अंदर पीना चाहिए अन्यथा उसका विदाहित्व (पित्त बढाने की प्रवृत्ति) बढता जाता है। कुछ लोग छाँछ बनाकर फ्रीज मे रखकर दो-दो तीन-तीन दिन तक पीते है। बाजार मे पाउच मे तैयार मिलनेवाली छाँछ ऐसी ही होती है। पाऊच मे मिलनेवाली छाँछ पीना मतलब अनेक रोगों को स्वतः होकर आमंत्रित करने जैसा है। पाऊँचवाली छाँछ पीने से पित्त तो बढता ही है, साथ मे कफ बहोत ज्यादा चिपचिपा होकर गले मे अटका हुआ है ऐसी सदैव प्रतीती होती रहती है। यही छाँछ पाचनशक्ति दुर्बल बनाकर गाऊट, पैरो की एडी दुखना, तीव्र अम्लपित्त, सर्दी-खाँसी जैसे व्याधी उत्पन्न करती है।
छाँछ कितनी मात्रा मे पीनी चाहिए?
आयुर्वेद मे छाँछ कितनी मात्रा में पीनी चाहिए, इसके बारे मे कोई स्पष्ट संकेत नही है। फिर भी प्रत्येक वस्तु का मात्रावत विनियोग ही करना चाहिए अन्यथा उपयोगी वस्तु भी हानीकारक सिद्ध होती है। यही सूत्र छाँछ पीने के बारे मे भी लागू पडती है। छाँछ भी मात्रावत पीनी चाहिए। एक वक्त 100 मिली से 300 मिली से ज्यादा छाँछ नही पीना चाहिए। कुछ लोग भोजनकाल में 4-5 ग्लास से ज्यादा छाँछ पी लेते है। छाँछ के रूप मे इतना प्रवाही पेट मे जाना पाचक रसों को पतला कर देता है। परिणाम स्वरूप उस व्यक्ति की पाचनशक्ति धीमे धीमे मंद होकर उसे पाचनतंत्र के विविध विकार उत्पन्न होते है। ऐसे अतिमात्रा में छाँछ पीनेवाले सभी लोगो में एक और विकृति देखी गयी है की इन लोगों का कोलेस्ट्रॉल और ट्राइग्लिसराइड सदैव बढ़ा हुआ होता है।
आजकल कुछ लोग पूरे दिनभर बहोत जोर-जोर से डकार देते है। ऐसे लोगों के व्याधी इतिहास मे आपको अतिमात्रा मे छाँछ सेवन का कारण मिलेगा ही। इसलिए भोजन के साथ 1 कप या 1 ग्लास से ज्यादा छाँछ नही पीना चाहिए और वो भी घूँट - घूँट, एकदम नही।
छाँछ पीने का समय:
छाँछ पीने के समय के बारे मे भी वस्तुतः कोई शास्त्रादेश नही है। परंतु यह परंपरा रही है की छाँछ भोजन के साथ पी जाती है और जैसा पहले कहा गया है कि छाँछ ताजी ही लेनी चाहिए। आजकल 3-4 दिन पुरानी फ्रीजकोल्ड छाँछ पीने का प्रघात है की जो अत्यंत हानीकारक है। फ्रीजकोल्ड होने से वह छाँछ पाचन मे सहायक होने की बजाए बाधक बनकर पाचनसंस्थान के व्याधी निर्माण करती है।
कुछ लोग भूखे पेट ही छाँछ के 2-4 ग्लास गटक जाते है। इतनी अतिमात्रा में छाँछ पीने से उसके लाभ मिलना तो दूर उल्टा विविध प्रकार के पित्तविकार उत्पन्न होते है। इसलिए भूखे पेट छाँछ का कदापि सेवन न करे।
कई सज्जन सिर्फ छाँछ पीके उपवास करते देखे गए है। हालाँकि उपवास में छाँछ पीना चाहिए ऐसा कोई भी उल्लेख आयुर्वेद में नही है। ये जो सब बातें आयुर्वेद के नाम से खपाई जाती, वस्तुतः वे आयुर्वेद की न होकर नेचुरोपैथी की है। पाश्चिमात्य देशों से भारत देश मे आयात हुई है परंतु प्राकृतिक होने की वजह से उन्हें भी आयुर्वेद का लेबल लगा दिया जाता है जो सर्वथा गलत है।
क्या छाँछ को बघारना उचित है?
छाँछ को बघारने की पद्धति परम्परागत है और शास्त्र भी इस बात की पुष्टी करता है परन्तु बघारना कैसे और किससे इसका आयुर्वेद में कोई विवरण नही है। क्योंकि यह एक अत्यंत सामान्य और दैनिक प्रक्रिया थी जो प्राचीन काल से लेके अब तक एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी में मौखिक रूप से प्रसारित होती रही है। इसलिए ऐसी सामान्य प्रक्रियाओं का विवरण आयुर्वेद में नही मिलता।
छाँछ को कभी आपने बघारने की कोशिश की हो तो आपको पता होगा कि छाँछ को ज्यादा गर्म नही किया जाता। ज्यादा गर्म करने से छाँछ में थक्के जम जाते है इसलिए तड़का देते से ही आधे मिनिट में छाँछ को सिगड़ी से उतार लेते है। यही कारण है कि छाँछ को तड़का मिट्टी के बर्तन में देने की परिपाटी थी। क्योंकि मिट्टी का बर्तन त्वरित गर्म भी नही होता और जल्दी ठंडा भी नही होता। मतलब छाँछ में थक्के जमने का कोई प्रश्न ही उत्पन्न नही होता और तड़का दी हुई छाँछ ज्यादा समय तक गर्म रहती है। बर्तन स्टील का हो तो ठंडा भी बहोत जल्दी हो जाता है। अतःएव उपरोक्त सूक्ष्म सूचनाओं पर अमल करना जरूरी है। तड़का दिए हुए छाँछ को आयुर्वेद पक्व तक्र के नाम से जानता है और श्वास, खाँसी तथा नाक से सतत पतला स्राव आने की स्थिती में सेवन की सलाह देता है। परंतु यह ध्यान रहे की बघारी हुई छाँछ गरमागरम ही सेवन करनी चाहिए। तभी उसके अच्छे गुणों का लाभ आपको मिलेगा अन्यथा जिन रोगों में इसे उपयुक्त बताया है उन्ही रोगों को यह उत्पन्न करते देखा गया है। इसलिए इस सूचना का विशेष ध्यान रखे।
छाँछ कब सेवन करना चाहिए?
आयुर्वेद के अनुसार छाँछ शीतकाल में मतलब ठंडी के ऋतुओं में सेवन करना चाहिए।
जब भूख न लगती हो, पाचनक्रिया दुर्बल हो, अन्न सेवन में रुचि न लगती हो तब शास्त्रोक्त छाँछ का सेवन करना चाहिए। शास्त्रोक्त मतलब दही में उससे आधे प्रमाण में पानी मिलाकर बनाई हुई छाँछ। कफ तथा वातरोगों में भी छाँछ का सेवन उपयुक्त होता है परंतु कफ और वातरोगों का स्वयं निदान करके छाँछ पीना योग्य नही। इसके लिए तज्ञ आयुर्वेदाचार्य की ही सलाह लेना उचित होता है अन्यथा रोग कम होने की बजाए बढ़ने की संभावना ही ज्यादा रहती है।
छाँछ के सेवन का निषेध
आयुर्वेद के अनुसार छाँछ (तक्र) गर्मी के दिनों में नही पीनी चाहिए और आजकल हम देखते है कि लोग छाँछ को ठंडा समझकर गर्मी के दिनों में प्रचुर मात्रा में छाँछ का सेवन करते है। ऊपर छच्छिका नाम से छाँछ का एक प्रकार वर्णित किया गया है। गर्मी के दिनों में उसका सेवन करना चाहिए न कि तक्र का।
शरीर पर या शरीर के अंदर कोई जख्म (Ulcer anywhere on the body or in the body) हो, तो भी छाँछ के सेवन का निषेध आयुर्वेद करता है। दुर्बल व्यक्ति को भी छाँछ नही पीना चाहिए। जिन्हें चक्कर आते हो, शरीर मे किसी भी प्रकार की जलन होती हो, जिनकी नकसीर फूटती हो, संडास, पिशाब से खून जाता हो, किसी कारण से जिनकी प्लेटलेट्स (Platelets) कम हुई हो ऐसे लोगो को भी छाँछ का सेवन नही करना चाहिए।
गाय - भैंस के दूध से बनाये छाँछ के गुण
गाय : गाय की छाँछ भूख बढ़ानेवाली, बुद्धि की धारणक्षमता बढ़ानेवाली, बवासीर में अत्यंत उपयोगी, प्लीहा के विकार, अतिसार ( diarrhoea), ग्रहणी (एक ऐसा रोग जिसमे रुग्ण को कभी कब्ज तो कभी पतली संडास ऐसे होता रहता है) में उपयोगी होती है।
भैंस : भैंस की छाँछ कफ बढ़ानेवाली, सूजन को बढ़ानेवाली और पचने में भारी होती है। आजकल कई रुग्ण इस बात की तक्रार करते है कि छाँछ पीने से सूजन बढ़ गयी, खुजली बढ़ गयी वगैरे। तो यह बात हम सामान्यतः छाँछ के गुणधर्मों की वजह से हुई ऐसा मान लेते है। परंतु आयुर्वेद ने गाय और भैंस के दूध से बने छाँछ के गुणधर्मों को बताकर यह स्पष्ट कर दिया कि भैंस की छाँछ ही इसका विकृतियों का मुख्य कारण है।
खट्टी छाँछ और मीठी छाँछ
हर एक रुग्ण जब उसका दही और छाँछ खाने का बंद किया जाता है तब यही प्रश्न उपस्थित करता है कि खट्टी छाँछ की जगह मीठी या फीकी छाँछ पी सकते है क्या? तो यहां एक बात ध्यान में रखे कि जो सिद्धान्त दही के लिए लागू पड़ता है वही सिद्धांत छाँछ के लिए भी लागू पड़ता है। शास्त्र में रस के आधारपर खट्टी या मीठी छाँछ ऐसा कोई फर्क किया नही है। यह भेद सिर्फ एक व्यवहारिक सुविधा है। छाँछ खट्टी हो या मीठी उसके मूलभूत गुणधर्मों में कोई फर्क नही पड़ता सिवाय तर-तम भाव के। इसलिए खट्टी या मीठी छाँछ में से कौनसी छाँछ पी सकते है यह प्रश्न ही गलत है। शास्त्र अगर किसी रोग में छाँछ से परहेज करने का आदेश देता है मतलब यह विचार शास्त्रवेत्ताओने पहले ही करके रखा है। इसलिए छाँछ खट्टी हो या मीठी, अगर वैद्यजी उससे परहेज करने की सलाह सूचन करते है तो उसका निश्चित पालन करना चाहिए।
छाँछ और नमक
आयुर्वेद के अनुसार पीते वक्त छाँछ में सैंधव नमक मिलाकर ही सेवन करना चाहिए। बिना नमक की छाँछ पीने से बवासीर और ग्रहणी जैसे विकार उत्पन्न होने की संभावना रहती है। इसलिए आयुर्वेदोक्त नियमों का पालन करके छाँछ का सेवन करना चाहिए तभी वह अमृत जैसा कार्य करेगा, अन्यथा वह रोगों को जन्म देनेवाला सिद्ध होता है।
अस्तु। शुभम भवतु।
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