Vaidya Somraj Kharche, M.D. Ph.D. (Ayu) 06 Jun 2017 Views : 1591
Vaidya Somraj Kharche, M.D. Ph.D. (Ayu)
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क्या आयुर्वेदिक औषधियोंके दुष्परिणाम होते है?

एलोपैथी (आधुनिक चिकित्सा विज्ञान) पिछले कुछ शतकों से ही अस्तित्व में है। इसमें से पिछले 100 सालों में ही बहोत सी नई नई एलोपैथिक औषधियाँ बाजार में आई और जितनी आई उससे आधी तो विविध देशो की सरकारो द्वारा प्रतिबंधित की गई। इस प्रतिबन्ध का मुख्य कारण था - उन उन नये औषधों के मानवी शरीर पर होनेवाले दुष्परिणाम। कभी कभी किसी व्याधी की चिकित्सा में तो ऐसी स्थिति देखी जाती है की बिना चिकित्सा के ही रुग्ण सुखी था ऐसा लगने लगता है। इतने भयंकर इन एलोपैथिक औषधियों के दुष्परिणाम रहते है।

तो क्या आयुर्वेदिक औषधियों के भी ऐसे ही दुष्परिणाम होते है?

न्यूटन के क्रिया-प्रतिक्रिया के तीसरे नियम के अनुसार प्रत्येक क्रिया के फलस्वरूप समान और विपरीत दिशा मे प्रतिक्रिया होती है। फिर क्रिया कितनी ही अल्प/दुर्बल क्यो न हो, प्रतिक्रिया भी उतनी ही अल्प या दुर्बल होती है। पर जरुरी नही कि यह प्रतिक्रिया दुष्प्रतिक्रिया (दुष्परिणाम) ही हो। सुप्रतिक्रिया (Good effects) भी हो सकती है। सुप्रतिक्रिया का अर्थ ही अच्छे परिणाम होता है। यह अच्छे परिणाम ही उस औषधी द्रव्य (Medicine) के गुणधर्म (properties) कहलाते है। हमे पहले से ही जो सुपरिणाम अपेक्षित है, उससे कुछ अलग और नया सुपरिणाम अगर बारबार मिले तो उसे उस औषधीद्रव्य (Medicine) के अंगभूत गुणधर्म मे ही समाविष्ट किया जाता है। परंतु शरीर या मन को हानिकारक ऐसा कोई अनपेक्षित परिणाम अगर बारबार मिलता है, तो उसे उस औषधी द्रव्य का दुष्परिणाम (Side effect) कहा जाता है। कुछ दुष्परिणाम अल्पकालिक (short lasting) होते है, कुछ दीर्घकालीन (Long lasting) होते है। कुछ प्रकृती, वय और ऋतुविशिष्ट होते है, तो कुछ प्रकृती, वय या ऋतु जैसे विशिष्ट घटकों की अपेक्षा नही रखते, सब मे समानरूप से देखने को मिलते ही है।

आयुर्वेदिक औषधियाँ 3 प्रकार की होती है।

    1) शुद्ध वनस्पती जन्य (Herbal)

    2) शुद्ध रसौषधी (Mineral)

    3) वनस्पती रसौषधी (Herbo-Mineral)

वनस्पतिजन्य आयुर्वेदिक औषधीयाँ सेवन करने के बाद ज्यादातर अर्थात 90% से ज्यादा औषधीया दुष्परिणाम उत्पन्न नही करती है। हालाँकि कुछ रुग्णों मे औषधीयों के रूप (appearence), रस (taste) या गंध (odour) की वजह से उलटी होना, सरदर्द होने जैसे दुष्परिणाम मिलते जरूर है, पर इन दुष्परिणामों में इतनी ताकत नही होती, जो शरीर मे कोई स्थायी संरचनात्मक (anatomical) या क्रियात्मक (physiological) बदलाव उत्पन्न कर सके। इसलिये रूप, रस, गंध की वजह से होनेवाले दुष्प्रतिक्रियाओं को दुष्परिणाम नही कह सकते। क्योंकि इनमे व्यक्ति सापेक्षता ज्यादा दिखाई देती है। उदा: जिस एरण्ड तैल के दर्शन या गंध मात्र से कुछ लोगो को उलटी होती है, उसी एरंड तैल को कुछ लोग बिना हिचकिचाहट के आराम से पी लेते है।

रसौषधी अर्थात जिसमे सिर्फ धातुओं की भस्म या अन्य खनिज औषधीयाँ ही घटक द्रव्यों के रूप में रहती है। आयुर्वेद मे रसौषधियों का वर्णन रसशास्त्र के अंतर्गत किया गया है। ये रसौषधीया बनाने के पूर्व ही इनमे जो घटक द्रव्य रहते है उनका शोधन (purification) तथा मारण (conversion of inorganic material into organic one for making it more assimilable to the body) करना जरुरी होता है और यह शोधन/ मारण कर्म अगर उचित विधी से नही किया गया या फिर शोधन / मारण कर्म मे कोई कसर बाकी रह गई हो तो रसौषधियों के दुष्परिणाम निश्चित हो सकते है। यह बात तो स्वतः आयुर्वेदिक ग्रन्थो मे ही हजारो वर्ष पूर्व ही कही गई है। यह कोई नयी बात नही है। आजकल हेवी मेटल्स (Heavy Metals) के बारे में जो अनावश्यक डराया जा रहा है, उससे आयुर्वेद पहले से ही परिचित है। रसग्रंथो में अशुद्ध धातुओं के सेवन से होनेवाले व्याधियोंका सविस्तर वर्णन दिया हुआ ही है। रोज रोज खाई जानेवाली रोटी भी अगर कच्ची रहती है तो उससे पेट मे दर्द उत्पन्न होता है, ये तो फिर भी दवा है।

संक्षेप मे आयुर्वेदिक औषधीयों को अगर शास्त्रोक्त पद्धती से नही बनाया जाता तो उनके भी निश्चित ही दुष्परिणाम हो सकते है। एलोपैथी की आधुनिक औषधियों का मात्र ऐसा नही है। शास्त्रोक्त पद्धती से बनाने के बावजूद भी इनके दुष्परिणाम होते ही है, ये ध्रुव सत्य है। उपरोक्त लेख का सारांश ये भी है की आयुर्वेदिक दवा निरापद होने के बावजूद भी, आयुर्वेदिक डॉक्टर के सलाह बगैर लेनी नही चाहिये।

अस्तु।शुभम भवतु। 

© श्री स्वामी समर्थ आयुर्वेद सेवा प्रतिष्ठान, खामगाव 444303, महाराष्ट्र