आयुर्वेदीक औषधी लेने के सामान्य नियम
सांप्रत काल मे औषधियों की सापेक्ष सुरक्षितता की वजह से सभी लोग आयुर्वेद की औषधी लेना चाहते है। इसलिए चिकित्सा लेने के लिए ज्यादातर लोग अब आयुर्वेद को वरीयता देते है। आयुर्वेदीय औषधियाँ निश्चित रूप से निरुपद्रवी है। परंतु तब ही, की जब वे शास्रोक्त पद्धती से निर्मित हो और शास्त्रोक्त पद्धती से ही उनका सेवन किया जाये।
आज भारतवर्ष का प्रत्येक नागरिक एलोपैथी को मुख्य चिकित्सा विज्ञान के रूप मे जानता है। तथा अलोपैथी की औषधियाँ भी सेवन करता है। एलोपैथी की औषधियाँ सेवन करने मे सुगम है, सरल है। गोली, सिरप या कैप्सूल मुँह मे डालो और उपर से पानी पी लो। इस आसन तरीके की वजह से सभी लोग एलोपैथी ही पसंद करते है। इससे पूर्णतः विरुद्ध आयुर्वेदीय औषधियों का सेवनप्रकार है। एक सादा चूर्ण लेने के लिए भी गरम जल या मधु की आवश्यकता होती है। सभी आयुर्वेदीक औषधियाँ पानी के साथ नही ली जा सकती। प्रत्येक औषधी कल्प के सेवनार्थ आयुर्वेद मे अलग अलग व्यवस्था का सूचन है। इस सूचना के अनुसार अगर आयुर्वेदीक औषधी नही सेवन की जाती, तो निश्चित ही उस आयुर्वेदीक औषधी के अपेक्षित परिणामो मे न्यूनता आती है। इसलिए तत-तत अनुपान के साथ अथवा सूचना के अनुसार आयुर्वेदीय औषधों का सेवन करना हितकर होता है।
आइये इस विषय पर विस्तार से चर्चा करते है।
आयुर्वेद मे औषधियाँ चूर्ण, वटी-गुटी, अवलेह, आसव-अरिष्ट, काढा, कल्क (चटनी जैसा स्वरूप) इस स्वरूप मे सेवन करने का निर्देश है। इनमे से एक एक स्वरूप के सेवन की प्रक्रिया को विस्तार से जानते है।
1) चूर्ण
चूर्ण अर्थात पावडर (powder)। चूर्ण पानी, दूध, छाछ, मध या अन्य कोई भी उपयुक्त प्रवाही (लिक्विड) के साथ लिया जाता है। चूर्ण अगर किसी प्रवाही के साथ लेने का निर्देश है, तो आवश्यक मात्रा मे चूर्ण मुँह मे रखकर उपर से प्रवाही सेवन किया जा सकता है। परंतु ऐसा करने से कई बार चूर्ण श्वासनलिका मे जाकर खाँसी आने की संभावना ज्यादा रहती है। इसलिए चूर्ण गरम / ठण्डे पानी मे मिक्स करके पीना निरापद है। ऐसा करने से खाँसी आने की संभावना नही रहती। जिनको चूर्ण मध के साथ लेने का निर्देश दिया गया है, उन्हे चूर्ण में कम से कम 1 मिनीट तक शहद में घोंटकर ही चाटना अच्छा होता है। ऐसा करने से चूर्ण की परिणामकरिता मे वृद्धि ही होती है। पानी के साथ लेने का निर्देश हो तो, गरम पानी से ही सेवन करना चाहिए। चूर्ण के साथ आवश्यक जितना ही पानी लेना चाहिए।
मध के साथ चूर्ण लेने के बाद, चूर्ण कडवा हो तो, पानी से मुँह साफ कर लेना चाहिए। परंतु पीना नही चाहिए। मध के साथ चूर्ण लेने के कम से कम 30 मिनीट के बाद ही पानी पीना चाहिए।
मध की बजाए चूर्ण शक्कर की चासनी या किसी अवलेह में मिश्रित करके भी सेवन कर सकते है।
2) वटी -गुटी
वटी, गुटी अर्थात tablet/pills। आजकल अधिकतर वैद्यगण गोलियाँ पानी के साथ सेवन करने का निर्देश देते है। परंतु ध्यान रहे, गोलियाँ पानी के साथ सेवन करना यह सिर्फ सुविधा है, शास्त्र नही। क्योंकि शास्त्र मे अधिकतर कल्पों को विशिष्ट प्रवाहियों के साथ सेवन करने के निर्देश है।
गोलियाँ लेते वक्त सभी गोलियाँ मुँह मे रखकर उपर से गरम पानी पीना चाहिए। कुछ रुग्ण अगर 4 गोलियाँ लेना हो, तो उसमे से प्रत्येक गोली अलग - अलग बार मुँह मे रखकर उपर से एक या दो घूँट पानी पीते है। परिणाम यह होता है की सिर्फ 4 गोलियों के लिए ही रुग्ण 400 या 500 मिली जितना पानी पी जाता है। सनद रहे जितना पानी ज्यादा, उतना ही गोलियों का पाचन एवं शोषण देर से होगा। क्योंकि गोलियों को पचाने मे भी पाचकाग्नि की ही भूमिका होती है। ज्यादा पानी पीने से पाचकाग्नि कुछ समय के लिए मंद हो जाता है। इसलिए गोलियों के साथ आवश्यक इतना ही पानी पीना चाहिए।
गोलियाँ अगर संख्या मे ज्यादा हो, तो सब का चूर्ण बनाकर पानी मे मिश्रित करके अथवा तत्सम अन्य प्रवाही अनुपान मे मिक्स करके लेना चाहिए।
आयुर्वेद मे सभी गुग्गुलकल्पों की गोलिया बनायी जाती है। गुग्गुलकल्पों की गोलियाँ ज्यादातर बहोत कठीण होती है। जो पेट मे जाकर भी न टूटती है, न ही घुलती है। कई बार तो गुग्गुल की गोलियों के तो रुग्ण के मल मे यथास्थित दर्शन भी हुए है। इसलिए गुग्गुल कल्प की गोलियों को अनिवार्यतः चूर्ण बनाकर ही लेना चाहिए।
गोलियों मे जिनका नाम रस से समाप्त होता है - जैसे लक्ष्मीविलास रस, त्रिभुवनकीर्ति रस, चंद्रकला रस- ऐसे सभी गोलियों को (रसकल्पों) संभव हो तब तक मध के साथ घिसकर ही चाटना चाहिए। घिसकर चाटने से गोलियों मे स्थित औषधीतत्व release होता है और औषधी तुरंत कार्यकारी हो जाती है। मतलब त्रिभुवनकीर्ती रस की गोली पानी के साथ लेने से जो परिणाम आयेगा, उससे ज्यादा शीघ्र परिणाम त्रिभुवनकिर्ती रस की गोली को मध मे घिसकर चाटने से आयेगा। मध की जगह दूध या अन्य किसी अनुकूल माध्यम (अनुपान) का उपयोग वैद्यराज की सलाहनुसार किया जा सकता है।
3) अवलेह
अधिकांश लोग च्यवनप्राश को जानते है। च्यवानप्राश यह अवलेह ही है। मतलब लापसी जैसा औषधकल्प ही अवलेह कहा जाता है। अवलेह को चाटकर, लार के साथ एकजीव करके, बाद मे निगला जाता है। ऐसा करने से अवलेह अल्प समय मे ही उत्कृष्ट कार्य करता है। अप्रिय स्वादवाला अवलेह चाटना बडा ही कष्टप्रद होता है। ऐसे वक्त उस अवलेह को पानी के साथ मिलाकर/घोलकर पीना ही सुविधा संगत होता है। परंतु ध्यान रहे पानी मे घोलकर पीने से अवलेह की कार्यकारीता पर निश्चित न्यूनात्मक असर होता है, परंतु फिर भी अप्रिय स्वाद को टालने की यही एक व्यवहार्य पद्धती है।
अवलेह खाने या चाटने के बाद जब तक भूख-प्यास न लगे, तब तक कुछ भी खाना या पीना नही चाहिए।
कडवा अवलेह खाते वक्त उसमे इलायची की पाउडर स्वाद बढाने के लिए मिश्रीत की जा सकती है।
अवलेह बनाते समय अगर मध का उपयोग किया होगा, तो ऐसा अवलेह गरम पानी/ गरम दूध के साथ नही लेना चाहिए। आँवलों से बने किसी अवलेह को दूध में घोलकर न पिएं। ऐसा अवलेह चाटकर खाने के कुछ समय बाद दूध लेना है तो ले सकते है।
4) आसव - अरिष्ट
आसव - अरिष्ट अर्थात संधान प्रक्रिया (Fermentation) से बनायी हुई प्रवाही औषधियाँ। जिसे आज fermented process के नाम से जाना जाता है। आसव - अरिष्ट संधान प्रक्रिया से बनाये हुये होने की वजह से गुणों में तीक्ष्ण एवं शीघ्र कार्यकारी होते है। इसलिए सेवन करते वक्त जितनी मात्रा मे आसव - अरिष्ट लेना है, उतने ही मात्रा मे उसमे गरम जल मिश्रित कर देना चाहिए। गर्म जल मिश्रीत करने से आसव - अरिष्ट की कार्यकरिता बढ़ती है। मात्र अत्यधिक गर्मी के ऋतु मे आसव - अरिष्टों मे गर्म जल की जगह सादा (फ्रिज या कूलर का नही) पानी मिलाया जा सकता है। अगर कोई गोली या चूर्ण (जिसमे क्षार न हो) आसव - अरिष्टों के साथ लेना है, तो लिया जा सकता है।
भोजन से पहले अगर आसव - अरिष्ट लेने का निर्देश हो, तो खाने के तुरंत पहले अर्थात 15 - 30 सेकंद पहले लेना चाहिए। वैसे इससे पहले भी ले तो कोई हानी नही होती। परंतु संधान से बनाया हुआ होने के वजह से अगर खाली पेट लिया, तो यह पेट मे अत्याधिक जलन का अनुभव कराता है। परंतु यह जलन वास्तविक रूप मे ना होकर सिर्फ एक प्रतीत (feeling) ही होती है। इसलिए आसव - अरिष्ट पीने के बाद होनेवाली जलन की वजह से डरने की आवश्यकता नही होती। भोजन के बाद अगर आसव - अरिष्ट लेने का निर्देश हो, भोजन के बाद तुरंत लेना चाहिए। जब किसी आसव - अरिष्ट का सेवन करना हो, तो तुरंत आगे - पीछे दूध, छाछ नही पीना या खाना चाहिए। मतलब भोजन में दूध का समावेश हो तो ऐसे वक्त आसव-अरिष्टों का उपयोग टालना ही हितकर होता है। इस बात का विशेष ध्यान रखे।
5) काढा
काढा अर्थात औषधियों को पानी मे उबालकर बनाया हुआ प्रवाही द्रव्य। काढा 100 मिली मात्रा मे पीना चाहिए। काढा पीने के लिए स्टील, काँच, मिट्टी या चीनी मिट्टी के पात्र का ही उपयोग करना चाहिए।
आजकल बाजार मे बने - बनाये काढे उपलब्ध है। जो ताजे बनाए हुए काढे से निम्नस्तर के ही होते है। फिर भी ताजे बनाने की सुविधा उपलब्ध न हो, तो इनका उपयोग किया जा सकता है। तैयार काढे 20 से 30 मिली की मात्रा मे पानी मिलाकर अथवा बिना पानी मिलाये भी पीये जा सकते है।
कई कंपनियों के काढे की बॉटल मे सबसे नीचे गाढा पदार्थ जमा हुआ मिलता है। उसे फेंकने की बजाए पानी मिलाकर उसका भी सेवन करे। वह कोई त्याज्य पदार्थ नही होता, यह ध्यान रखे।
6) कल्क
कल्क अर्थात पीसकर बनायी हुई चटनी। किसी वनस्पती को पानी डालके सूक्ष्म पीसकर उसकी चटनी बनाने को ही कल्क कहते है। कल्क ताजा बनाकर ताजा ही उपयोग मे लाए। एक बार बनाकर फ़्रिज मे रखकर 2-4 दिन तक उसका उपयोग करते रहे - ऐसा नही करना चाहिए। ऐसा करने से कल्क के शास्त्रोक्त गुणधर्मों की उपलब्धि नही होती और उलटा दुष्परिणाम होने की संभावना ज्यादा रहती है।
कल्क मे भी सेवन करने समय इलायची की पावडर मिश्रीत की जा सकती है।
कल्क बनाने के लिए सील-बट्टे का उपयोग करना चाहिए। मिक्सर का नही। क्योकिं मिक्सर सिर्फ वनस्पती को ब्लेड से काटकर बारीक बनता है। पिसता नही। इसलिए काटे हुए और पिसे हुए एक ही औषधी के 2 कल्पों के गुणधर्मो मे अंतर आ सकता है।
कल्क बनाने के बाद, अगर कडवी औषधी से बनाया हुआ हो, तो सेवन करते वक्त बडा कष्ट होता है। ऐसे वक्त कल्क को मुँह मे रखकर उपर से तुरंत पानी पिया जा सकता है, जिससे कडवे स्वाद का ज्यादा पता न चले।
अस्तु। शुभम भवतु।
© श्री स्वामी समर्थ आयुर्वेद सेवा प्रतिष्ठान, खामगांव 444303, महाराष्ट्र, भारत