
सफ़ेद दागो की चिकित्सा का एक अनछुआ पहलू
सफेद दाग मतलब कोढ। संस्कृत मे इसे श्वित्र, मराठी-गुजराती मे कोड और इंग्लिश मे Leucoderma, Vitiligo के नाम से जाना जाता है। यह व्याधी इतना सामान्य है की ज्यादातर समय इसका निदान करने के लिए डॉक्टर की जरुरत नही पडती, इसके लक्षणों से ही स्वतः इसका निदान हो जाता है।
आजकल हम देखते है की यौन-समस्याओं के समाधान के जितने विज्ञापन होते है, उतने ही विज्ञापन सफेद दागों (श्वित्र) कि चिकित्सा के लिए भी होते है। हर गली, नुक्कड की दीवार पर, बस हो या ट्रेन पर, समाचार पत्र के छोटे विज्ञापनों मे सफेद दागों की चिकित्सा के लिए स्थान तो होता ही है। तो ऐसा क्या है इस व्याधी मे जो इसकी चिकित्सा के लिए इतने सारे विज्ञापन किये जाते है? ना तो यह व्याधी रुग्ण को अपाहिज बनता है, ना हि यह कोई दारुण ( Grave, Serious) व्याधी है। तो किस दृष्टिकोन से लोग इसे इतना महत्व देते है?
उत्तर है - सामाजिक कारणों की वजह से अनुभवित की जानेवाली असहजता।
इसी असहजता से बचने के लिए लोग किसी भी हालत मे श्वित्र से छुटकारा पाना चाहते है। परंतु अब प्रश्न यह है की श्वित्र के प्रति इस सामाजिक असहजता का जन्म क्यो और कैसे हुआ? इस प्रश्न का उत्तर आयुर्वेद के आर्ष ग्रंथ चरकसंहिता मे अब से 2000 वर्ष पूर्व ही दे दिया गया है। चरकसंहिता मे श्वित्र के कारणों पर सविस्तर चर्चा की गयी है।
वचांस्यतथ्यानी कृतघ्नभावो निंदा सुराणां गुरूधर्षण च।
पापक्रिया पूर्वकृतं च कर्म हेतुः किलासस्य विरोधी चान्नम।।
अर्थात असत्य भाषण (झूठ बोलना), किये हुए उपकार को न मानना, सज्जन और सुशील लोगों की निंदा करना, गुरुजनों का अपमान करना, पापाचरण करना, पूर्वजन्म या रोगोत्पत्ती के कुछ समय पूर्व किये गये दुष्कर्म तथा विरुद्धाहार किलास (श्वित्र, कोढ) की उत्पत्ति मे कारण होता है।
उपरोक्त कारणों को देखने के बाद पता चलता है की इन कारणों मे सिर्फ एक ही कारण भौतिक (Physical) है । बाकी सभी कारण अधिभौतिक (Metaphysical) है, अर्थात जिन्हे आप देख नही सकते। विरुद्धाहार छोडके बाकी सभी कारण ऐसे है, जिनका अनुसरण करनेवाले को समाज आज भी तिरस्कार की दृष्टी से ही देखता है। अर्थात जिस व्यक्ती को श्वित्र हुआ है, उसने निश्चित रूप से उपरोक्त कारणों का सेवन किया ही होगा। उन कर्मों को किया होगा, इसलिए तो क्रिया-प्रतिक्रिया के सिद्धांतानुसार उसके किये-कराये की शिक्षा इस व्याधी के उत्पत्ति के स्वरूप मे मिलती है। अब ये बात तो जाहिर है की ऐसे कर्म सन्मानयोग्य श्रेणी मे तो नही आते। इसीलिए समाज ऐसे लोगो को की जिन्हे श्वित्र है, हेय दृष्टी से देखने लगा। भारतीय प्राचीन सभ्यता के विषय मे आप सभी विद्वान वाचकगण अच्छी तरह से परिचित हो ही। जिस समाज मे स्वप्न मे दिये हुए वचन की पूर्तता करनेवाले राजा हरिश्चंद्र होकर गये उस समाज मे झूठ बोलना, कृतघ्नता, गुरुजनों का अपमान, उनकी निंदा करनेवाले तथा पापकर्मरत व्यक्ती आदर का पात्र कभी नही हो सकता। इसलिए प्राचीन काल से ही श्वित्रग्रस्त व्यक्ती के तरफ असहज भाव से देखने की समाज मे रूढी बन गयी। आचार्य चाणक्य ने तो यहा तक कह दिया की श्वित्रग्रस्त व्यक्ती के कुटुंब के साथ वैवाहिक रिश्ते नही बनाने चाहिए। श्वित्रग्रस्त व्यक्ती के साथ समाजद्वारा ऐसा आचरण नैतिक मूल्यों के रक्षार्थ किया जाता था। ताकि अन्य कोई भी व्यक्ती इस तरह से गलत आचरण न करे और समाज की नैतिकता सुदृढ रहे। इसी रूढी का अनुसरण दादा-पडदादाओं से लेकर आजतक की पीढ़ियों ने किया। परंतु जैसे जैसे मेकॉले की शिक्षणपद्धती भारतवर्ष मे लागू हुई, सांस्कृतिक- सामाजिक मूल्यों का भी पतन शुरू हुआ। झूठ बोलना, कृतघ्नता, गुरुधर्षण (गुरुजनों का अपमान), बडो का अनादर करना ये बात सामान्य हो गई। पहले इन परंपराओ के बारे मे जो संवेदनशीलता थी, वो अब नही रही। इसलिए वो असहजता का भाव भी आज नही रहा और शायद इसलिए भी श्वित्र को एक शारीरिक व्याधी मानकर चिकित्सा करने की परिपाटी शुरू हो गई। आधुनिक चिकित्सा विज्ञान श्वित्र को जो मानना है वो माने, परंतु आयुर्वेद श्वित्र को कर्मज व्याधी मानता है। पापकर्मो का श्वित्र की उत्पत्ति मे सबसे बडा हिस्सा रहता है और इसलिए ही आचार्य चरक ने 'श्वित्र कस्यचिदेव एव प्रणश्यति क्षीण पापस्य।' ऐसा स्पष्ट कह दिया है। अर्थात श्वित्र किसी का ही ठीक होता है, वो भी केवल उनका ही जिनका पापकर्म क्षीण हो चुका होता है। सूर्यप्रकाश जितना सत्य स्पष्ट करने के बाद भी आचार्यों ने श्वित्र की चिकित्सा का वर्णन तो किया है। परंतु यह चिकित्सा सिर्फ विरुद्धाहार सेवन से उत्पन्न श्वित्र के लिए है, पापकर्मों की वजह से उत्पन्न श्वित्र के लिए नही।
अब इतना बड़ा लेख पढने के बाद आपके मन मे आपके किसी परिचित श्वित्रग्रस्त व्यक्ति के बारे मे विचार आयेगा की ये तो अत्यंत सज्जन व्यक्ति है। ना तो वो झूठ बोलते है, ना ही वो कृतघ्न है और ना ही किसीका अपमान करते है। तो फिर उन्हे क्यो श्वित्र हुआ? इसका उत्तर तो आचार्यों ने उपरोक्त श्लोक मे ही दिया है - पूर्वकृतं च कर्म। अर्थात पूर्वजन्मकृत पापकर्म के परिणाम स्वरुप उन्हे श्वित्रोत्पत्ति हुई है। ऐसे लोग इसकी चिकित्सा करने के लिए कोई कसर नही छोडते परंतु कभी पूर्ण ठीक होते नही देखे गये। थोडा सा श्वित्र तो शरीर पर रहता ही है।
श्वित्र की चिकित्सा मे यह कर्मविपाक सिद्धान्त जरूर ध्यान मे लेना चाहिए। वैसे प्रत्येक दुःख का हेतु व्यक्ति के अपने कर्म ही होते है। परंतु जहा कर्मों के अदृश्य परिणामस्वरुप व्याधी उत्पन्न हुआ हो, वहा कर्मविपाक सिद्धान्त को जरूर ध्यान मे लेना चाहिए और ऐसे व्याधियों की दैवव्यपाश्रय चिकित्सा करनी चाहिए। परंतु इसका ये अर्थ नही की आप किसी भी बाबा या झाड़फूँक वाले के पीछे पडकर अपना स्वास्थ एवं संपत्ति व्यर्थ नष्ट करे।
श्वित्र की साध्यासाध्यता के बारे मे आयुर्वेद के विचार निम्नोक्त है।
असाध्यता - श्वित्र के मण्डल(चकत्ते) एक दूसरे से सट गये हो, श्वित्र के मण्डलों की संख्या बहुत हो, मतलब जो बहुत ज्यादा फैल गया हो। जो अनेक वर्षों से उत्पन्न हुआ हो, जो गुह्यस्थान (Genitals), हाथ के तलुओं पर तथा होठों पर हो वह श्वित्र असाध्य होता है, मतलब कभी ठीक नही होता।
साध्यता - श्वित्र के चकत्ते अगर संख्या में कम हो, आकार में छोटे हो, कम जगह हो और नया नया ही उत्पन्न हुआ हो तो ऐसा श्वित्र साध्य होता है।
सूचना : उपरोक्त लेख श्वित्र (सफ़ेद दाग) की चिकित्सा के बारे में समाज में फैले भ्रम को दूर करने लिए तथा उसकी उचित जानकारी देने हेतु लिखा गया है, न की श्वित्रग्रस्त व्यक्ति को डराने या निराश करने के लिए। सत्य सदैव कड़वा होता है परन्तु सत्य होता है और यही सत्य आपको फँसने से बचाता है। अन्यथा 'आज नहीं तो कल, ठीक होगा ही' इस झूठे आशावाद में मनुष्य अपना समय और धन दोनों व्यर्थ नष्ट करता है।
अस्तु। शुभम भवतु।
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