सामान्य लक्षणों को समझने की व्यावहारिक सूझबूझ
Seasonal physiological variation & common sense
मनुष्य को जीवनयापन करने के लिए शास्त्रीय ज्ञान की जितनी आवश्यकता होती है, उतनी ही आवश्यकता व्यावहारिक ज्ञान की होती है, जिसे आजकल सब लोग common sense के नाम से जानते है। इन्टरनेट के इस युग मे लोगो को बडे बडे रोगों के बारे मे सब कुछ पता होता है। परंतु सीधी-सादी बातों की ही समझ नही रहती। आईए इस पहलु पर विस्तार से चर्चा करते है। एक पूर्ण वर्ष मे 6 ऋतु होते है। प्रत्येक ऋतु का वातावरण दूसरे ऋतु से भिन्न होता है। प्रत्येक ऋतु अनुसार मानवी शरीर मे कुछ प्राकृतिक, तो कुछ विकृत बदलाव उत्पन्न होते है। इन प्राकृत बदलावों को स्थिर बनाये रखने के लिए तथा विकृत बदलावों का शरीर पर कोई अहितकर परिणाम न हो इसलिए आयुर्वेद के ऋषीमुनियों ने स्वास्थरक्षक ऋतुचर्या का वर्णन किया है। ऋतुचर्या का पालन इन विकृत बदलावों से शरीर की रक्षा करता है तथा शरीर का प्राकृतिक प्रतिकारक्षमत्व को (immunity) बढाता है। ऋतुचर्या तथा ऋतुनुसार शरीर मे होनेवाले बदलावों की जानकारी आप एक आयुर्वेदिक डॉक्टर के पास जाकर ले सकते है। परंतु कुछ बाते ऐसी होती है जिनको जानने समझने के लिए डॉक्टर की नही, बल्कि सामान्य ज्ञान की जरुरत होती है। वर्षाऋतु (rainy season) मे उत्पन्न होनेवाले - वारंवार मूत्रप्रवृत्ती - इस लक्षण का भी कुछ ऐसा ही है। ग्रीष्मऋतु (summer) मे शरीर मे स्थित पानी का ज्यादा हिस्सा पसीने के द्वारा बाष्पीभवन से शरीर से बाहर उत्सर्जित होता रहता है और इसलिए प्यास ज्यादा लगती है। अतः एव मनुष्य ज्यादा पानी पीता है फिर भी इसी ग्रीष्म ऋतु की ज्यादा गरमी से मूत्रप्रवृत्ती बहोत कम हो जाती है, ये हमारा सामान्य अनुभव है। ग्रीष्म के पश्चात आनेवाले वर्षाऋतु मे शरीर का तापमान बारिश की वजह से कम होता है। इसलिए वर्षाऋतु मे पीया हुआ पानी पसीने की बजाए मूत्ररुप मे बाहर परंतु वारंवार निष्कासित होता रहता है। इसीलिए जैसे ही वर्षाऋतु आरंभ होता है - वारंवार मूत्रप्रवृत्ती यह उद्वेजक लक्षण उत्पन्न होता है। अब यहाँ ये लक्षण ऋतुजन्य परिवर्तन की वजह से उत्पन्न होता है यह समझना कोई दुष्कर बात नही है। इसके लिए प्रत्येक व्यक्ती को चिकित्सा-विज्ञान का ज्ञान होना चाहिए यह आवश्यक नही। परंतु आजकल लोगों को इतनी भी सामान्य समझ नही है और इसीलिए इसे विकृत समझकर चिकित्सा लेने डॉक्टर के पास जाते है। वर्षाऋतु के बाद शीतऋतु का आगमान होता है। शीतऋतु मे तो शरीर का तापमान और भी कम होता है इसलिए जाहीर है की अत्याधिक शीतता की वजह हाथ-पैर ठंडे पडते है। लोग इसकी भी चिकित्सा लेने हॉस्पिटल पहुँच जाते है। शीतऋतु के बाद ग्रीष्म ऋतु (summer) का प्रारंभ होता है। असंतुलित पर्यावरण की वजह से आजकल गर्मी जरा ज्यादा ही पडती है। इसलिए ये तो सहज बात है की इतनी गर्मी से हाथ और पैर के तलुओं मे जलन तो होगी ही। परंतु लोग इसकी भी चिकित्सा लेने हॉस्पिटल आ जाते है। कहने का तात्पर्य केवल यही है की सामान्य समझ के अभाव मे लोग किसी भी छोटे अस्थायी लक्षण को व्याधि मानकर चिकित्सा करने दौडते है। स्वास्थ के बारे मे जागरूक भी रहना जरुरी है। परंतु इतना भी नही की सामान्य - असामान्य का भेद ही समझ न आए। उपरोक्त अथवा तत्सम लक्षणों की उत्पत्ती ये तत्-तत् ऋतु के अनुसार होती है। अगर इन लक्षणो को पुरी तरह से टालना है और स्वस्थ रहना है तो शास्त्र मे कही गई ऋतुचार्याओं का अनुसरण करना उचित होता है।
अस्तु। शुभम भवतु।
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