Vaidya Somraj Kharche, M.D. Ph.D. (Ayu) 22 Feb 2018 Views : 4040
Vaidya Somraj Kharche, M.D. Ph.D. (Ayu)
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दिनचर्या भाग 15 - मैथुन (Sexual Intercourse)

मैथुन अर्थात संभोग (sexual intercourse)। मैथुन वस्तुतः दिनचर्या के अंतर्गत नही आता। परंतु पाश्चात्य विचारों के प्रभाव से आजकल लोग इसका भी नियमित सेवन करते है। इसलिए दिनचर्या के श्रेणी में इसके बारे में भी जानकारी देना उचित समझा। आयुर्वेद मे मैथुन कर्म की वारंवारता का उल्लेख ऋतुचर्या मे किया है, न की दिनचर्या मे। इससे स्पष्टतः यही अनुमान लगाया जा सकता है की मैथुन का ऋतुनुसार शरीरबल देखकर आचरण करना चाहिए।

मैथुन यह धर्मार्थादी चार पुरुषार्थों मे एक है। इसके सेवन के बिना मोक्ष के तरफ आत्मा का प्रवास शुरू नही होता। इसलिए मैथुन का आचरण त्याज्य नही है। परंतु आयुर्वेद उसे सीमित मात्रा मे सेवन करने की सलाह देता है।

मैथुन पाश्चात्य लोगो के जीवन का केंद्रबिंदु है। सिग्मण्ड फ्राईड और कार्ल जंग जैसे बडे बडे मनोविकार तज्ञों ने मानवी जीवन मे उत्पन्न होनेवाली ज्यादातर समस्यओं का केंद्रबिंदु अतृप्त मैथुनेच्छा को ही माना है।

भारतवर्ष मे मैथुन यह विषय सदैव एक गूढ, गोपनीय विषय रहा है। समाज मे खुले तौर पर इसकी चर्चा आज भी नही की जाती। परंतु इसका यह अर्थ कतई नही की आयुर्वेद मे इस विषय की उपेक्षा की है। आयुर्वेदीय ग्रन्थों मे तथा उत्तरकालीन तन्त्र ग्रन्थों मे इसका विस्तार से विवेचन उपलब्ध होता है। आयुर्वेद मे तो, 'वाजीकरण' नाम से एक विशेष शाखा इस विषय से जुडी है। परंतु आयुर्वेद और तन्त्र ग्रन्थों के वर्णन मे यही फर्क मिलता है की आयुर्वेद मे मैथुन क्रिया को एक सुप्रजा निर्माण का साधन माना गया है, तो तन्त्र ग्रन्थों मे मैथुन यह सिर्फ शारिरीक तथा मानसिक सुख की प्राप्ती का एक साधन बताया गया है। यही कारण है की तन्त्र ग्रन्थों मे वर्णित मैथुन के विविध आसनों का आयुर्वेद मे लेशमात्र भी उल्लेख नही है।

आयुर्वेद के अनुसार पुरुष उम्र के 20 वे वर्ष से मैथुन समर्थ होता है। तो स्त्री उम्र के 16 वे वर्ष से ही मैथुनक्षम हो जाती है। यह शारिरीक समर्थता भले ही निर्माण हो चुकी हो, तो भी जब तक मानसिक परिपक्वता उत्पन्न नही होती, भारतीय संस्कृती सहवास की आज्ञा नही देती। इसलिए विवाहबंधन मे बंधने के बाद ही मैथुन विरमता (Indulgence in Sexual Activity) को भारतीय संस्कृती मे नैतिकता की दृष्टी से देखा जाता है।

शरीर सदैव स्वस्थ रहे, इस हेतु से आयुर्वेद मे जो ऋतुचर्या वर्णन की है, उसमे प्रत्येक ऋतु मे कितनी वारंवारता से मैथुन करना चाहिए उसका स्पष्ट उल्लेख है। जैसे

  • शिशिर ऋतु - यथेच्छ
  • वसंत ऋतु - तीन दिन मे एक बार
  • ग्रीष्म ऋतु - 15 दिन मे एक बार
  • वर्षा ऋतु - 15 दिन मे एक बार
  • शरद ऋतु - 3 दिन मे एक बार
  • हेमन्त ऋतु - यथेच्छ

वस्तुतः यहाँ वर्णित वारंवारता एक सामान्य निर्देश है। प्रत्येक ऋतु के अनुसार मनुष्य शरीर मे बल का या तो निर्माण होता है या तो उस बल का ह्रास होता है। यह निर्देश इस बल की स्थिती को ही ध्यान मे रखकर ही दिये गये है। परंतु आजकल इन निर्देशों का कोई भी व्यक्ति पालन नही करता और इसका कारण है पाश्चात्य विचारों का जनमानस पर का प्रभाव। आधुनिक विज्ञान द्वारा मैथुन के बारे मे ऐसी कोई मर्यादाये प्रतिपादित नही की गई है। इनके अनुसार जब मन मे आए तब मैथुन किया जा सकता है। आयुर्वेद ऋतुनुसार मैथुन आचरण करने की सलाह देता है और आधुनिक विज्ञान जब मन मे आये तब मैथुन सेवन करने की सलाह देता है। इसका प्रभाव यह हुआ आजकल समाज मे मैथुन के विधिवत आचरण की बजाए स्वैराचार हो गया है। नवविवाहित नव दंपतियों मे तो एक दिन मे 4 बार मैथुन करने की प्रवृत्ति पाई जाती है। इससे संभवित नुकसान यह होता है की शुक्राणुओं को परिपक्व होने का समय ही नही मिलता और शुक्राणु दुर्बल रह जाते है। ऐसी स्थिती मे यदि गलती से गर्भधान हो गया, तो दुर्बल शुक्राणु द्वारा फलित संतति दुर्बल आयेगी या बलवान? उत्तर स्पष्ट है। इसलिए ही आयुर्वेद के आचार्यों ने ऋतुनुसार एक समयसारणी बतायी है।

मनुष्य मन चूँकी उच्छृंखल, चंचल है और ऐसा होने की पूरेपूरी संभावना है, इसकी कल्पना आचार्यों को पहले से थी ही। इसलिए उन्होंने इसके बारे मे भी स्पष्ट दिशा निर्देश दिये है। प्रतिदिन मैथुन सेवन की अभिलाषा रखनेवाले व्यक्तियों के लिए, आचार्यों ने कामशक्तिवर्धक औषधियों के नित्य सेवन की सलाह दी है। ध्यान रहे, यह सलाह केवल युवावर्ग के लिए ही है। नित्य मैथुन यह सिर्फ कामसुख प्राप्ती के लिए ही किया जाता है। सुप्रजा निर्माण करने हेतु शास्त्र मे दिये गये वारंवारता के अनुसार ही मैथुन करना चाहिए।

अहोरात्र मे मैथुन का समय - शास्त्रज्ञानुसार मैथुन मुख्यतः मध्यरात्री मे ही करना चाहिए। भोजनोत्तर 3 घण्टे के बाद मैथुन करना श्रेयस्कर होता है। अन्यथा पाचनक्रिया मे विकृती उत्पन्न होकर 'आमवात' जैसे कष्टसाध्य व्याधी उत्पन्न होने की संभावना ज्यादा रहती है।

मैथुन तथा कामसूत्रोक्त विविध आसन - आचार्य वात्स्यायन के कामसूत्र तथा समकालीन अन्यग्रंथो मे मैथुन करने के लिए विविध आसनों का उल्लेख है। यह सभी आसन सिर्फ रतिक्रिया का आनंद प्राप्त करने के लिए उपयोग मे लाये जाते है। परंतु ध्यान रहे, इन आसनों का नियमित उपयोग स्त्रियों के लिए हानिकर ही सिद्ध होता है। क्योंकि इन आसन स्वरूपी विषमचेष्टाओं से स्त्री की योनि, योनिमार्ग तथा गर्भाशय मे वातवृद्धी होकर शूलादी विकृतियाँ उत्पन्न होने की संभावना रहती है। अतः एव इन विषमचेष्टायुक्त आसनों का शक्य हो तब तक अंगीकार नही करना चाहिए।

मैथुन के अयोग्य स्थिति -

1) बहुत अधिक भोजन करने के बाद मैथुन न करे।

2) भय से आक्रान्त मन के साथ मैथुन न करे। अर्थात डर की मानसिक स्थिति मे मैथुन वर्ज्य करे।

3) भूख, प्यास लगी हो तब मैथुन न करे।

4) अनुचित आसनों में (different positions) स्थित होकर मैथुन न करे।

5) बाल्यावस्था तथा वृद्धावस्था मे मैथुन न करे।

6) मल - मूत्र का वेग उपस्थित हुआ हो, तब मैथुन न करे।

7) रोगी पुरुष मैथुन न करे।

अन्य निर्देश -

1) स्त्री का मासिक धर्म चालू हो, तब मैथुन न करे।

2) स्त्री गर्भिणी हो अथवा जिसका अभी अभी प्रसव हुआ हो, ऐसी स्थिती मे मैथुन वर्ज्य करे।

मैथुन के लिए निषिद्ध स्थान -

गुरुगृह, पूजाघर, स्मशान भूमि, नदीतट आदि जलस्थान।


अस्तु। शुभम भवतु।


© श्री स्वामी समर्थ आयुर्वेद सेवा प्रतिष्ठान, खामगांव 444303, महाराष्ट्र, भारत