Vaidya Somraj Kharche, M.D. Ph.D. (Ayu) 13 Jul 2017 Views : 2259
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आयुर्वेदीय आहरविधी का दसवाँ एवं अंतिम नियम है -

आत्मानभिसमीक्ष्य भुञ्जित सम्यक।

अर्थात अपनी शारीरिक शक्ती को देखकर ही भली-भांती भोजन करे।

अब सामान्य मनुष्य अपनी शारीरिक शक्ति का अन्वेषण किस प्रकार करे?

इसका उत्तर सरल है - Trial & error method, अर्थात परीक्षण द्वारा भूल-सुधार पद्धती। इस पद्धती मे स्वयं के लिए क्या उचित? क्या अनुचित है? इसका निर्णय उस वस्तु का उपयोग करके ही लिया जाता है। मतलब वो वस्तु/आहारद्रव्य अपने लिए अनुकूल है या प्रतिकूल यह उसका उपयोग करने के बाद, उसके शरीर पर होनेवाले परिणामों से ही निश्चित किया जाता है।

समझिए आज आपने गँवारफली या बैगन खाया है और इसके सेवन के पश्चात अगर आपको कुछ तकलीफ हुई तो यह आहारद्रव्य आपको सात्म्य/अनुकूल नही है यह निश्चित हो जाएगा। इस निश्चितीकरण के पश्चात तकलीफ से बचने के लिए आप वो आहरद्रव्य भविष्य मे फिर कभी भी सेवन नही करेंगे। इसी पद्धती को आयुर्वेद आत्मानभिसमीक्ष्य ऐसा कहता है अर्थात अपने लिए क्या अनुकूल है? क्या प्रतिकूल है इसकी स्वयं समिक्षा करना। यह निश्चितीकरण ही हमे भविष्य में स्वस्थ रखने मे सहायक होता है। कुछ द्रव्यें का स्वाद इतना अप्रतिरोध्य रहता है की ऐसे निश्चितीकरण के बाद भी मनुष्य जिव्हालौल्य की वजह से ऐसे आहारद्रव्य प्रज्ञापराधवश खा ही लेता है। परंतु बाद मे तो उसे ही तकलीफ होती ही है। इसीलिए सात्म्य- असात्म्य, अनुकूल - प्रतिकूल का यह विचार आहारसेवनकाल मे अत्यावश्यक होता है। यह सातत्म्यासात्म्यता द्रव्यविशेष के साथ प्रमाणविशेष और कालविशेष मे भी हो सकती है।

प्रमाणविशेष अर्थात कोई आहारद्रव्य अगर आप अल्पमात्रा मे सेवन करते हो तो आपको कोई तकलीफ नही होती। परंतु वही आहारद्रव्य एक विशिष्ट मात्रा से ज्यादा प्रमाण मे जब सेवन किया जाता है, तब निश्चित रोगकारक होता है।

कालविशेष भी इसी पद्धती का ही एक अंग है। एक काल (ऋतू, season) मे हितकर आहारद्रव्य दुसरे काल (season) मे हितकर ही होगा, ऐसा जरुरी नही। फिर चाहे वह आहारद्रव्य कितना ही निरापद या नित्यसेवनीय ही क्यों न हो। जैसे जल नित्यसेवनीय ही होता है। गर्मी के दिनों मे ठंडा जल हितकर होता है। परंतु वही ठंडा जल सर्दी के दिनों में रोगकारक होता है। इसीलिए शरीर को स्वस्थ बनाए रखना होगा तो स्वयं के लिए हितकर - अहितकर आहारद्रव्य का निश्चितिकरण करके ही खाए।


अस्तु। शुभम भवतु।


© श्री स्वामी समर्थ आयुर्वेद सेवा प्रतिष्ठान, खामगाव 444303, महाराष्ट्र, भारत