आहार और मानसिक भाव
Diet & psychological factors
आयुर्वेदीय आहारविधी का छठवाँ नियम है - इष्टे देशे इष्टसर्वोपकरणं अश्नीयात
इष्टे देशे - अर्थात आहार सेवन करने का जो स्थान है वह इष्ट होना चाहिए। इष्ट मतलब मनोनुकूल, मन प्रसन्न करनेवाला। आहार का स्थान मन प्रसन्न तभी करेगा जब वह स्वच्छ होगा। इसीलिए इष्टे देशे का अर्थ स्वच्छ स्थान लेना चाहिए। मनुष्य का मन बडा ही संवेदनशील होता है। आसपास के वातावरण का मनुष्य के मन पर बडा प्रभाव पडता है। अनुकूल वातावरण मन को प्रसन्न कर उसमे उर्जा का संचार कर देता है, वही प्रतिकूल वातावरण मन मे विषाद उत्पन्न कर देता है। दैनिक जीवन मे हम ऐसे कई उदहारण देखते है की मन अगर बलवान है तो लंगडा भी दौडता है, पर मन अगर दुर्बल है तो बलवान भी लंगडता है। इसीलिए भोजन करते वक्त मन प्रसन्न होना चाहिए ऐसा आयुर्वेद मे कहा है। क्यूँ की मन की अनुकूल/प्रतिकूल अवस्था का पाचनतंत्र पर बहोत गहरा असर होता है। मन की प्रसन्नता बनाए रखने के लिए ही आयुर्वेद इष्ट स्थान में भोजन करने की सलाह देता है। स्थान गंदा देखकर मन मे क्रोध एवं द्वेष की उत्पत्ति हो सकती है। अन्य मित्रों के साथ या परिवार के साथ भोजन लेते समय भी बातों की वजह से मन ईष्या, चिंता, क्रोध इत्यादि कारणों से उपतप्त (disturb) हो सकता है। और ऐसे मानसिक भावों से क्षुब्ध मन पाचनतंत्र को अवसादित कर देता है। ऐसी स्थिती मे अगर हितकर और हलका आहार भी लिया तो भी उसका पाचन नही होता।
पाचनतंत्र पर मानसिक भावों का परिणाम क्या होता है, यह बताते हुये आयुर्वेद कहता है।
मात्राSप्यभ्यवहृतं पथ्यम् चान्नम् न जीर्यती।
चिन्ताशोकभयक्रोधदुःखशय्याप्रजागरै।।
अर्थात मन अगर चिन्ता, शोक, भय, क्रोध इन मानसिक भावों से उपतप्त(disturb) होगा तो योग्य मात्रा मे लिए हुए हितकर आहार का भी पाचन नही होता। इसीलिए इष्टे देशे इस सूत्र को आयुर्वेद अत्याधिक महत्व देता है।
इष्टसर्वोपकरणम् - अर्थात आहार जिस पात्र मे बनाया एवं खाया जाता है, वह भी इष्ट अर्थात उचित होना चाहिए। भोजन बनाने के लिए मृत्पात्र, लोहा, अथवा पीतल, स्टेनलेस स्टील का पात्र उचित माना जाता है। ये सभी पात्र खाद्यपदार्थों के साथ प्रतिक्रिया नही करते इसीलिए इन्हे हितकारी माना है। कुछ लोग अल्युमिनियम के बर्तनों मे खाना बनाते भी है और खाते भी है, जो स्वाथ्य के लिए बहोत ही घातक है।
भोजन लेते समय हात, पैर मुँह और कपडे भी स्वच्छ होने चाहिए। भोजन के लिए आवश्यक सभी वस्तुए साथ मे लेके बैठना चाहिए। नही तो खाने को बैठे और सब्जी मे नमक ही नही, तो नमक लेने रसोईघर मे गये। फिर सब्जी तीखी लगी तो पता चला पानी ही नही। फिर पानी ले आये। इन व्यवधानों से भोजन मे एकाग्रता नही रहती। मन क्षुब्ध होता है और फिर से यह क्षुब्धता पाचनतंत्र पर अवांछीत असर डालती है।
कुछ लोग सब्जी के स्वाद मे नमक थोडा भी कम ज्यादा हुआ तो तुरंत गुस्सा करते है जो फिर से मनक्षोभ का कारण बनता है। इसीलिए भोजन इष्ट रस, गंध,वर्ण, का होना चाहिए जिससे खानेवाला व्यक्ति सुखपूर्वक भोजन का आनंद ले सके। आहार सेवन और पाचन पर मानसिक विकारों का इतना सूक्ष्म विचार शायद ही किसी और वैद्यकशास्त्र मे होगा।
अस्तु। शुभम भवतु।
© श्री स्वामी समर्थ आयुर्वेद सेवा प्रतिष्ठान, खामगाव 444303, महाराष्ट्र