Vaidya Somraj Kharche, M.D. Ph.D. (Ayu) 06 Jun 2017 Views : 1877
Vaidya Somraj Kharche, M.D. Ph.D. (Ayu)
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आहार में स्निग्ध पदार्थो का उपयोग : क्या सही क्या गलत?

आयुर्वेदीय आहारविधी का दूसरा नियम है स्निग्धं अश्नीयात् अर्थात भोजन मे सदैव स्निग्ध पदार्थ होना चाहिये। स्निग्ध अर्थात घी और तैल से बने पदार्थ, न कि घी या तैल मे तले हुये। कोई भी यंत्र सुचारू रूप से चलने के लिए जैसे स्नेह (oil or grease) की अत्यंत जरुरत होती है, वैसे ही मनुष्य शरीर का क्रियाकलाप (Biological activities) सम्यक रूप से चले इसीलिए मनुष्य को भी स्नेह की अत्यंत जरूरत होती है। शरीर मे अहर्निश चलनेवाले क्रियाकलापों के फलस्वरूप वातदोष बढता है। यह बढ़ा हुआ वातदोष मनुष्य शरीर मे क्षयात्मक बदलाव (degenerative changes) उत्पन्न करता है। इन क्षयात्मक बदलावों को अगर समय रहते रोका न गया, तो शरीर धीरे धीरे जीर्णशीर्ण और दुर्बल होकर पंचत्व मे विलीन हो जाता है। ऐसे अकाल बदलावों को रोकने के लिए शरीर का सातत्येन स्नेह से बृंहण (पोषण) अत्यावश्यक होता है। क्यूँ की यही स्नेह वृद्ध (बढे हुए) वात का शमन (alleviation) और करता है। इसीलिए आयुर्वेद ने किसी व्याधिविशेष के सिवा दैनिक जीवन मे स्नेह सेवन का कही भी निषेध नही किया है। बल्कि दैनिक आहार में स्नेह (घी, तैल) के नित्यसेवन का पुरस्कार ही किया है और आधुनिक आहारविज्ञान ने तो स्नेह के बारे मे जनसामान्यों मे दहशत ही फैला के रखी है। क्यूँ की आधुनिकों के पास आयुर्वेद जैसा न शास्त्र है, न ही सिद्धान्त। उन्होंने घी खाने से ह्रदय में ब्लॉक होता है यह बता दिया और मानसिक गुलामी की वजह से हमने मान भी लिया। पर उन्हें घी से क्या अभिप्रेत है यह तो सोचा ही नही। उनकी घी बनाने की पद्धत क्या है यह बिना जाने हमने उनका कहा मान लिया और अंधानुकरण शुरू कर दिया। आधुनिक पद्धती मे दूध से फैट निकालकर उसे गरम करके घी बनाया जाता है, जिसे पश्चिम में Clarified Butter कहा जाता है, घी नही। घी यह संकल्पना तो भारतवर्ष की है इसलिए अंग्रेजो ने भारतीय घी को ghee ही कहा है। भारतीय आहारशास्त्र के अनुसार दूध से दही जमाकर फिर उसकी छाँछ बनाकर फिर इस छाँछ को मथकर जो मक्खन निकाला जाता है, उस मक्खन को गरम करके घी बनाया जाता है। आधुनिक पद्धती से बनाया हुआ घी अर्धपक्व होता है, वही भारतीय परंपरागत पद्धति से बनाया हुआ घी पूर्णपक्व होता है। इसलिए देसी पद्धति से बनाया घी व्यापारिक स्तर पर बनाये गए घी से कई गुना बेहतर होता है। भारतीय एलोपैथी डॉक्टर पीलिया (Jaundice) जैसे लिवर के व्याधियों में घी खाने से मना कर देते है क्योंकि इनका संशोधन अर्धपक्व घी पर आधारित होता है और ये सलाह देते है पूर्णपक्व घी से दूर रहने की। मुख्य गड़बड़ यही तो है। अर्धपक्व घी खाने से उसे पचाने का बोझ पाचकाग्नि पर आता है। लिवर पाचकाग्नि के स्थानों में से एक स्थान है, इसलिए बीमार लिवर अर्धपक्व घी को पचा नही पता और रोग बढ़ता जाता है। आयुर्वेद में पीलीया की चिकित्सा में घी सेवन का निषेध तो दूर, उल्टा औषधिसिद्ध घृत पिलाकर विरेचन कराने का विधान आया है और इसका सिर्फ एक ही कारण है- घी की पूर्णपक्वता। मतलब पाश्चिमात्य भी उनकी जगह सही है और हम भी अपनी जगह। गलती उन भारतीय विद्वानों की है जो पाश्चिमात्य सिद्धांतो को भारतीय जीवनशैली में अपनाने की सलाह देते है।

आयुर्वेद ऐसे पूर्णपक्व प्राकृतिक स्नेहो के नित्यसेवन की सलाह देता है। परंतु उनके सेवन में भी कुछ नियमो का पालन बहोत जरुरी है जैसे-

1) तैल सेवन में यह ध्यान रखना जरुरी है की तैल लकड़ी की घाणी से निकाला हुआ होना चाहिए, न की रिफाइंड। क्योंकि कितनी भी उत्कृष्ट गुणवत्ता का रिफाइंड तैल हो तो भी वो 40% पाम तैल की मिलावट के साथ ही आता है मतलब ख़राब तो ख़राब ऊपर से उसमे भी मिलावट। आपको ये बात ज्ञात ही होगी की व्यापारियों को सभी खाद्य तेलों में विधिवत 40% पाम तेल मिलाने की अनुमति भारत सरकार ने ही दी है।

2) घी मख्यन से बनाया हुआ, पूर्णपक्व होना चाहिये, न की व्यापारिक दृष्टी से बनाया हुआ अर्धपक्व।

3) घृत या तैल से बने स्निग्ध व्यंजन (receipes) खाने के बाद उनका सुचारू रूप से पाचन होने के लिये खाने के दो घण्टे बाद अनिवार्यतः गरम पानी ही पीना चाहिये। फिर मौसम गर्मी का हो या सर्दी का, पानी गरम ही होना चाहिये।

स्निग्ध भोजन के बाद अगर ठण्डा पानी पिया गया तो आहार मे उपस्थित स्नेह जम जाता है, उपर से पाचकाग्नि की उष्णता भी कम हो जाती है। यह मंद उष्णता जमे हुये स्नेह को पचा नही पाती। फिर भी बेचारी पाचनयंत्रणा जमे हुये स्नेहो को जैसे तैसे पिघलाकर पचाने की कोशिश करती है, जिस कोशिश मे स्नेह पूरा तो नही पर आधा ही पचता है। ऐसा अर्धपक्व स्नेह विकृत स्वरुप का होता है जो शरीर का पोषण करने की बजाय उसके प्राकृतिक कार्य मे बाधा उत्पन्न करता है। इन विकृत स्नेहों को हम आजकल Cholesterol, Triglycerides, LDL के नाम से जानते है। ये विकृत स्नेह जब एक विशिष्ट मर्यादा से ज्यादा बढते है, तब ये हृदय की रक्तवाहिनीयों मे संचित होकर उन्हे अवरुद्ध (obstruct) कर देते है, जिसकी वजह से हार्ट अटैक आता है। भोजन के बाद 'डेझर्ट' के नाम से 'आइसक्रीम' खाना भी कितना अशास्त्रीय है ये अब आपको पता चला होगा। आधुनिक विज्ञान मे आहार के बारे मे कोई विकसित संकल्पना ही नही है। जीभ को जो अच्छा लगे वो खाने की सलाह दी जाती है और फिर जब उसके विपरीत परिणाम दिखते है, तब उसी पदार्थ को 'अहितकर' घोषित किया जाता है।

अतः एव स्नेह को तिरस्कृत समझने की बजाये कुछ नियमों का पालन करते हुए स्नेहों का नित्य सेवन करना चाहिये, तो यह शरीर के लिये निश्चित रूप से श्रेष्ठ सिद्ध होगा।

अस्तु। शुभम भवतु। 

© श्री स्वामी समर्थ आयुर्वेद सेवा प्रतिष्ठान, खामगाव 444303, महाराष्ट्र