स्वास्थ्यरक्षण के आयुर्वेदीक उपाय
Ayurvedic Ways of Preserving Health
मनुष्य के व्याधी की चिकित्सा करने के लिए संसार मे आज कई चिकित्सापद्धतीयाँ उपलब्ध है। जिसमे एलोपैथी, आयुर्वेद, होमिओपैथी, नेचुरोपैथी ऐसी चिकित्सापद्धतीयाँ मुख्य है, जिनका प्रचलन आज ज्यादा है। ये सभी चिकित्सापद्धतीयाँ मनुष्य शरीर मे उत्पन्न व्याधी की चिकित्सा तो करते है, परंतु स्वास्थ्यरक्षण तथा उसके उपाय सिर्फ और सिर्फ आयुर्वेद मे बतायें है। आयुर्वेद ने स्वास्थ्यरक्षण सिर्फ बताया नही, बल्कि उसे अपना प्राथमिक उद्देश्य भी माना है। इसीलिए आयुर्वेद व्याधी की चिकित्सा करने से ज्यादा स्वास्थरक्षण पर ज्यादा जोर देता है।
आयुर्वेद मे स्वास्थरक्षण के दो प्रकार बताये है -
1) दिनचर्या - ऋतुचर्या का पालन करके
2) रसायन औषधियों का सेवन करके
दिनचर्या - ऋतुचर्या पालन मे सुबह उठने से लेकर रात को सोने तक एक विशिष्ट समयसारणी का अनुसरण करना होता है। इस अनुसरण के कुछ नियम होते है। जिन्हे ऋतु के अनुसार बदलना पडता है, ताकि ऋतुनुसार बदले हुए प्राकृतिक मौसम का मानवी शरीर के साथ सामंजस्य बना रहे। मतलब दैनिक तौर पर किए जानेवाले स्वास्थमय आचरण को दिनचर्या कहा जाता है और दिनचर्या मे ही ऋतुनुसार किए गये परिवर्तनो को ऋतुचर्या कहा जाता है।
दिनचर्या मे निम्नलिखीत गतिविधियों का समावेश होता है।
1 | ब्राह्ममुहुर्त मे उठना | 11 | व्यावसायिक गतिविधियों की शुरुवात |
2 | शौचनिवृत्ति | 12 | प्रातः भोजन |
3 | दन्तधावन | 13 | भोजनोत्तर स्वल्प चंक्रमण |
4 | कवल | 14 | वामकुक्षी |
5 | अंजन | 15 | पुनः दैनिक व्यवसाय की शुरुवात |
6 | अभ्यंग | 16 | सूर्यास्तपुर्व सायंभोजन |
7 | व्यायाम | 17 | भोजनोत्तर स्वल्प चंक्रमण |
8 | स्नान | 18 | वामकुक्षी |
9 | नस्य | 19 | शयन |
10 | कर्णपुरण |
आदर्शरूप मे इन प्रक्रियाओं को रोज ही अनुसरण करना चाहिए ऐसा शास्त्र कहता है। परंतु आजकल की तेज जिंदगी मे यह सब, जहाँ आपको ऑफिस जाने के लिए ही घर से 8 बजे निकलना होता है, वहाँ यह सब रोज रोज करना संभव नही है। परंतु शरीर को अगर स्वस्थ, रोगरहित रखना है तो इन प्रक्रियाओं का अनुसरण करना अनिवार्य है। रोज सभी गतिविधीयाँ करना भले संभव ना हो तो अत्यावश्यक गतिविधीयाँ छोडकर बची हुई अन्य गतिविधीयों में से रोज कम से कम एक प्रक्रिया तो करनी चाहिए अथवा रविवार के दिन सभी करनी चाहिए। जैसे आज अंजन करे तो कल अभ्यंग। फिर आगे एकाध दिन नस्य और कर्णपूरण किया जा सकता है। मतलब जैसे जैसे समय मिले वैसे इनमे से एक दो गतिविधी का आचरण करना चाहिए। क्योंकि आप भले एक मेकेनिक हो, वॉचमन हो या आयएएस ऑफीसर हो या कितने भी व्यस्त हो शरीर को इससे कुछ लेना देना नही रहता। सूर्योदय के साथ शरीर व्यापार शुरू होते है और सूर्यास्त के साथ 50% कम होते है। शरीर के अंदर जो बायोलॉजिकल क्लॉक होता है, वह सूर्योदय और सूर्यास्त का ही अनुगमन (follow) करता है। इस बायोलॉजिकल क्लॉक के साथ अगर आपने सामंजस्य प्रस्थापित किया तो व्याधियाँ निश्चित रूप से आपसे कोसो दूर रहेगी। परन्तु अगर इस जैविक घडी की आपने उपेक्षा की तो शरीर कुछ दिनों तक तो जैसे- तैसे काम कर लेता है परन्तु बाद में वो जवाब दे देता है। इसीलिए मार्केटिंग या अप-डाउन करने वाले लोहों के मुँह से आपने ऐसा बोलते सुना होगा की "पहले पहले काम करने में कोई समस्या नहीं थी। परन्तु आजकल शरीर साथ नहीं देता। बहोत जल्दी थक जाता हूँ। "यह जो पहलेवाला समस्यारहित समय था, ये शरीर ने आपके लिए समझौता करने का समय था। इस काल में शरीर ने पहले से संग्रहीत ऊर्जा का उपयोग किया इसीलिए बिना स्वास्थ्य नियमों के पालन से भी आपका काम हो गया। परंतु जब यह संग्रहीत ऊर्जा समाप्त हुई और आपके पास ऊर्जा का अतिरिक्त भंडार (store) बचा ही नही, तभी आपकी समस्याए शुरू हुई। दिनचर्या मे निहित प्रवृत्तियॉ स्वयं के शरीर को रिचार्ज करने के लिए ही है। पूरे दिनभर जो दौडधाम होती है, उसमे जो ऊर्जा नष्ट होती है, उसी की आपूर्ति के लिए दिनचर्या का विधान है। दिनचर्या मे आज हम सिर्फ दन्तधावन (मंजन) और शिरस्नेह धारण (बालों मे तैल लगाना) इन दो प्रवृत्तियों का ही अनुसरण करते है और वो भी मजबूरी मे। क्योंकि यह भी नही करेंगे तो पूरे दिन मुँह से बदबू आएगी और बालों मे तैल नही लगाया तो बाल रूखे-सूखे और कांतिहीन (lusterless) दिखेंगे, जो कि हमारी दिखावट (look) खराब करते है। इसीलिए इन दोनो दिनचर्या विधानों के लिए हम मज़बूरी मे समय निकालते है। हालाँकि दन्तधावन के लिए पेस्ट और बालों मे सुगंधित मिनरल ऑयल डालके इन दोनो प्रवृत्तिओं का भी हम कबाडा करते है, वो अलग बात है। इसीलिए इन दोनों कर्मों में आज सिर्फ औपचारिकता ही रह गई है। शास्त्रोक्त विधि का उसमे लेशमात्र भी अंतर्भाव नही रहता।
स्वास्थरक्षण का दूसरा प्रकार है - रसायन औषधियों का नियमित सेवन।
रसायन औषधियों के सेवन से बहोत हद तक स्वास्थ्य का रक्षण किया जाता है। च्यवनप्राश, सुवर्णप्राशन, गिलोय, अश्वगंधा, यष्टिमधु, शतावरी जैसी कई औषधियों का नियमित सेवन शरीर का व्याधिक्षमत्व एवं कष्टसहत्व बढ़ाता है। प्रदूषित अन्नपानी के सेवन से आज छोटे बच्चे से लेकर बडों तक सबमे व्याधिप्रतिकार क्षमता ही कम हो गई है। ऋतुबदल होते से ही लोग बीमार हो जाते है और एक बार बीमार हो गये की 5-6 दिन बीमारी मे ही चले जाते है। नियमित रसायन सेवन व्याधिप्रतिकार क्षमता बढ़ाकर बार बार होनेवाली बीमारियों से बचाता है। आजकल स्वास्थ्यरक्षण का एक नया ही प्रकार सामने आया है। जिसमे लोग सुबह सुबह आँवले का, ग्वारपाठे का, गेहुँ के जवारे का, दूधी का रस पीते है। लोगो ने इस स्वरस पान को गलती से आयुर्वेदीक संकल्पना समझ लिया है। परंतु ध्यान रहे, ग्वार पाठा, गेहूँ, आँवला वगैरे वनस्पतियाँ आज से ज्यादा प्राचीनकाल मे प्रचुर मात्रा मे उपलब्ध थी, फिर भी आयुर्वेद के ऋषिमुनियों ने रसायन कर्म के लिए ऐसे स्वरसों का कभी पुरस्कार नही किया। यह स्वरस पान की जो परिपाटी आज बन गयी है, वह स्वास्थ्य के लिए अनुकूल नही है। ऐसा स्वरस पीना यह नेचुरोपैथी का उपचार हो सकता है, परंतु आयुर्वेद का कतई नही। उपरोक्त दोनो में से किसी भी एक प्रकार का या दोनो प्रकारों अंगीकार किया जा सकता है।
अस्तु। शुभम भवतु।
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