Vaidya Somraj Kharche, M.D. Ph.D. (Ayu) 26 Oct 2017 Views : 1463
Vaidya Somraj Kharche, M.D. Ph.D. (Ayu)
26 Oct 2017 Views : 1463

अब क्या?

What Now?

हॉस्पिटल के बाह्यरुग्ण विभाग (OPD) आजकल कई वृद्ध लोग पार्किन्सन(Parkinsons Disease) जैसे व्याधी की चिकित्सा करवाने हेतु आते है और पूँछते है की यह समस्या मुझे पिछले 3-4 सालों से है। अब क्या कर सकते है? क्या आप के आयुर्वेद मे इसका इलाज है? हम बडी आशा लेकर आयुर्वेद के पास आए है। एलोपैथी की औषधियाँ अभी चालू ही है पर कोई उत्तम परिणाम नही मिले। औषधियाँ लेने के बाद कुछ घण्टो तक अच्छा लगता है। बाद मे जैसे थे स्थिती हो जाती है। उपर से दवाओं का असर धीमे धीमे कम होता जा रहा है। क्या आपके पास आयुर्वेद मे इन समस्याओं का कोई स्थायी इलाज है?

अलझायमर्स (Alzheimer's disease) जैसे व्याधी मे वृद्ध व्यक्ति की हालत तो और खराब हो जाती है। हुआ क्या है? यही उन्हे समझता नही। क्यों कि किसी भी बात को समझने के लिए उससे संबंधीत पूर्वस्मृती होना अत्यावश्यक है। मतलब आज भी अगर आप किसी विषयवस्तु को समझ रहे हो, इसका मतलब आप उसके बारे मे पहले से जानते हो। उस विषयवस्तु के बारे जो पूर्वस्मृति आपके के पास है, उसे आप स्मृतिपटलों पर लाकर उस विषय के बारे मे समझ लेते है। परंतु यहाँ तो पूर्वस्मृति ही नष्ट हो जाती है। इसीलिए रुग्ण न तो अपना इतिहास आपको बता सकता है, न चिकित्सा के लिए अनुरोध कर सकता है।

ऐसे भयंकर वृद्धावस्थाजन्य व्याधी (Geriatric disorders) लेके जब रुग्ण आपके पास आता है, तो उसे क्या उत्तर दे, यही प्रश्न निर्माण होता है। क्योंकि स्वयं आयुर्वेद के पास ऐसे व्याधियों के उपचार नही है। पार्किन्सन, अलझायमर्स जैसे वृद्धावस्थाजन्य विकार ज्यादातर मज्जाधातु (Nervous tissue) की विकृती के परिणाम स्वरूप उत्पन्न होते है और आयुर्वेद मज्जाधातु मे उत्पन्न विकारों को आरंभ से ही असाध्य (Incurable) मानता आ रहा है।

आयुर्वेद के पास ऐसे व्याधि 100% ठीक करने का कोई उपाय भले ही न हो, परंतु इसे रोकने (Prophylactic) का उपाय 100% है। ऐसे व्याधि रोकने के लिए ही आयुर्वेद दिनचर्या, ऋतुचर्यापालन तथा हितकर आहारविहार सेवन की सलाह देता है। नियमित रसायन सेवन से तथा ऋतुशोधन से ऐसे असाध्य व्याधियों को निश्चित रूप से टाला जा सकता है।

प्राचीन काल से ही आयुर्वेद को इस बात का ज्ञान है कि ऐसे व्याधी अगर एकबार उत्पन्न हो जाये, तो इनका कोई इलाज नही है। इसीलिए आयुर्वेद ने पहले से ही दिनचर्यापालन, ऋतुचर्यापालन तथा हितकर आहार-विहार सेवन पर जोर दिया है। उपरोक्त तीनो विधी-विधान 'स्वस्थवृत्त' के अंतर्गत आते है। स्वस्थवृत्त अर्थात स्वस्थ ( healthy) रहने के लिए किया जानेवाला आचरण। स्वस्थवृताचरण शरीर मे अनावश्यक विषाक्त पदार्थों (आम) का संचय होने से बचाता है। शरीर को फुर्तीला तथा कार्यक्षम रखता है। परंतु आजकल की तेज दौडधूप वाली जिंदगी में स्वस्थवृत्त का पालन करने के लिए किसी के पास समय नही है।

स्वस्थवृत्त का आचरण करना मतलब शरीर रूपी मशीन की रोज रोज देखभाल करना। शरीर का मन तथा आत्मा के साथ संतुलन बना रहे, शारीर क्रियाओं का क्रियान्वयन सुचारू रूप से हो इसीलिए दिन-रात तथा ऋतु एवम काल के अनुसार शरीर को अनुकूल बनाना ही स्वस्थवृत्त पालन है। रहते हुए घर से भी अगर हम सिर्फ 15 दिन के लिए बाहर चले जाएं तो जैसे घर मे सब जगह धूल जम जाती है और दीवारों तथा नुक्कड़ों पर मकड़ी के जाल बन जाते है, वही हालत शरीर की भी है। इसीलिए शरीर स्वास्थ्य बनाए रखने के लिए स्वस्थवृत्तपालन अत्यंत जरुरी है अन्यथा मनुष्य शरीर में भी ऐसी ही स्थिति उत्पन्न हो जाती है, जो तरह तरह के विकारों को जन्म देती है।

जीवनसंतती (the life continuity) बनाए रखने के लिए शरीर मे असंख्य क्रियाये अनवरत रूप से चलती रहती है। इन क्रियाओं के परिणामस्वरूप शरीर के धातु ( tissues) तो पुष्ट होते ही है, परंतु उतना ही कचरा भी निर्माण होता है। शरीर अपनी क्षमता के अनुसार इस कचरे का निष्कासन करने की पूरी कोशिश भी करता है। परंतु हर वक्त यह पूर्णरूप से संभव नही होता। ऐसे वक्त यही मलरूपी कचरा शरीर मे संचित होकर शारीरधातुओं को नुकसान पहुँचाता है। उनकी कार्यक्षमता को घटाता है और उनमें क्षयप्रक्रिया (Degeneration) शुरू कर देता है। यह क्षयप्रक्रिया अगर रस रक्तादि जैसे प्रारंभिक धातुओं मे हो तो उसे कई हद तक परावृत्त (reverse) भी किया जा सकता है, परंतु अस्थि (bones), मज्जा (nervous tissue) जैसे गंभीर (Deep rooted) धातुओं में अगर क्षय की प्रक्रिया शुरू हो जाती है तो उसे ठीक करना तो दूर बल्कि जैसे थे कि स्थिती में भी रखना मुश्किल हो जाता है। आयुर्वेद के ऋषि मुनि इस सिद्धांत से भलीभाँति परिचित थे। इसीलिए उन्होंने गला फाड़ फाड़ कर पुनः पुनः स्वस्थवृत्तपालन का आदेश दिया है।

इसीलिए पार्किंसन्स, अलझायमर्स जैसे वृद्धावस्थाजन्य व्याधि से पीड़ित रुग्ण जब आयुर्वेद की शरण मे आता है, तब आयुर्वेद ऐसे व्याधियों को 'जैसे थे' कि स्थिति में रखकर रुग्ण को अस्थायी, अल्पकालिक आराम देने के सिवा कुछ नही कर सकता। एलोपैथी के जैसे औषधियाँ तो आयुर्वेद में भी चालू ही रखनी पड़ती है। सिर्फ आयुर्वेद का फायदा यह है कि अधिकांश आयुर्वेदिक औषधियों के दुष्परिणाम नही होते। ऊपर से, एक ही औषधि से अनेक समस्याओं का समाधान हो जाता है। प्रत्येक नए लक्षण के लुए अलग से औषधि की योजना नही करनी पड़ती। बारबार औषधियों की मात्रा भी बढ़ानी नही पड़ती और अगर ऊपर से नस्य, बस्ती, शिरोधारा, शिरोबस्ती, शिरोपिचु, शिरोभ्यंग जैसे पंचकर्मो का जोड़ दिया जाए तो क्या कहने !!

नित्यसेवनीय रसायन भी ऐसे व्याधियों में उत्कृष्ट कार्य करते है। स्वामीआयुर्वेद सुवर्णप्राशनम भी ऐसा ही एक नित्य सेवनीय रसायन है जो जन्म के पहले दिन से लेकर अंतिम श्वास तक सेवन किया जा सकता है। स्वामीआयुर्वेद सुवर्णप्राशनम उत्तम कोटि के सुवर्णभस्म तथा प्रज्ञविवर्धनम घृत जैसे प्रशस्त औषधियों का संयोग होने की वजह से पार्किंसन्स, अलझायमर्स जैसे वृद्धावस्थाजन्य विकारों में लक्षणीय स्थिरता प्रदान करता है। यही सुवर्णप्राशनम अगर पहले से नियमित सेवन किया जाए तो ऐसे असाध्य व्याधियों से निःसंदेह बचा जा सकता है।

आयुर्वेदीय स्वस्थवृत्तपालन अगर रोजिन्दा जीवन मे अपनाया जाए तो बिना किसी औषधि के भी ऐसे असाध्य व्याधियों को निश्चित रूप से दूर रखा जा सकता है और ऐसा आश्वासन आयुर्वेद के सिवा अन्य कोई भी चिकित्साशास्त्र नही दे सकता। यही आयुर्वेद की विशेषता है।


अस्तु। शुभम भवतु।


© श्री स्वामी समर्थ आयुर्वेद सेवा प्रतिष्ठान, खामगांव 444303, महाराष्ट्र, भारत