आयुर्वेदीय आहारविधी का सातवाँ नियम है - नातिद्रुतमश्नीयात्। अर्थात तेजी से आहार सेवन नही करना चाहिए।
क्यूँ? क्या होता है तेजी से आहार सेवन किया तो?
व्यवहार मे हम देखते है स्वामी विवेकानंद हो, परमहंस योगानंद हो या अन्य कोई महापुरुष - सभी ने किसी भी कार्य की सफलता के एकाग्रता को ही जरूरी बताया है और एकाग्रता भी तभी साधती है, जब मन/शरीर किसी अन्य कार्य मे व्यस्त न हो। द्रुतगति से आहार सेवन इसी एकाग्रता का विरोधी है। द्रुतगति सेवन मन की चंचलता बढाता है, जो आहार के पाचन मे बाधक होता है। इसीलिए आयुर्वेद नातिद्रुतंमश्नीयात्। अर्थात शांति से आहार सेवन करने की सलाह देता है।
आपने यह कई बार अनुभव किया होगा की आप 2-4 मित्रों के साथ खाना खाने बैठे है। आपने अभी तक एक ही रोटी खायी है की तब तक आपका मित्र 4-5 रोटियाँ खाके भोजन समाप्त भी कर देता है। ऐसे तेजी से भोजन करने की कुछ लोंगो की आदत होती है तो कुछ लोगों की मजबूरी । जैसे जैसे समय बदलता जा रहा है, वैसे वैसे ये लोगो की मजबूरी बन रही है। कुछ लोग इसी मजबूरी को आदत मे बदल लेते है। हमारी नौकरी या व्यवसाय के अनुसार माध्यान्हभोजन (lunch) का समय निर्धारित रहता है और इसी नियत समय मे ही खाना पूरा करना होता है। माध्यान्ह भोजनावकाश की नियत समय मर्यादा की वजह से व्यक्ती तेजी से खाना पूरा कर लेता है। निवाले को ठीक तरह से चबाता भी नही। पहला निवाला गले से नीचे बिना उतारे ही दूसरा निवाला मुँह मे ठूँस देता है। ऐसे आधा चबाया हुआ खाना पचाने मे पाचनशक्ति को बडी मुश्किलों का सामना करना पडता है। इस अधचबाये अन्न को पूर्णत: तरल रूप मे रूपांतरीत करने के लिए पाचन शक्ति को बहोत पापड बेलने पडते है। यही क्रम अगर महिनों सालों तक चलता रहा तो फिर गैस, कब्ज, एसीडीटी, अजीर्ण जैसी छोटी व्याधीयाँ भी शरीर मे घर कर लेती है। हम अमीर है या मजदूर यह हमारे पाचन संस्थान को पता नही होता। उसे सिर्फ इतना ही पता होता है कि खाना एकदम शांति से, एकाग्र् मन से लेना चाहिए। आयुर्वेद के अनुसार तेजी से आहार सेवन करने से शरीर को भोजन के गुण-दोषों की उपलब्धि नही होती मतलब आहार में स्थित आहारद्रव्यों के गुणधर्मं पूर्णरूप से प्रकट नही होते। संक्षेप मे ना ही उस भोजन से फायदा होता है ना ही नुकसान। आइये इसे जरा विस्तार से समझते है। मान लीजिए किसी व्यक्ति को एसिडिटी हुई है और उस व्यक्ति ने इसी कारण सिर्फ दूध रोटी खाई, परंतु वही दूध रोटी अगर तेजी से खाई हो तो दूध का पित्तशमन गुण काम नही करता। फिर ऐसी स्थिती मे आाप चाहे कितना भी पौष्टिक आहार लिजीए, तो भी उसका पूरा पाचन एवं शोषण नही होता और यही कारण है की आजकल हम धनसपंन्न लोगों मे भी कई बार विटामिनों की कमी से होनेवाले व्याधियों को होते हुए देखते है।
तेजी से भोजन करने की वजह से अन्न श्वासनलिका मे अटक कर उलटी होने की संभावना रहती है। भोजन का जो स्वाद शांती से खाने से मिलता है वह फटाफट खाने से संभव नही। भोजन मे अगर गलती से कचरा, बाल, कंकड, स्टेपलर की पीन, काँटा होंगे तो उतावलेपन मे वो भी नजर नही आएगा। ऐसी स्थिती मे क्या अनर्थ हो सकता है, यह बताने की जरूरत ही नही। उपर से फटाफट खाने से ना ही तृप्ती का अनुभव होता है, ना ही मन:प्रसादन। इसीलिए भोजन एकदम शांती से लेना चाहिए जिससे उसका यथावत पाचन एवं शोषण हो।
अस्तु । कल्याणमस्तु।
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