
कर्मज व्याधी
प्रायतः अनेक बार एक चित्र हम समाज मे देखते है कि आयुर्वेदोक्त नियमों का पूर्णतः पालन करनेवाले व्यक्ति को कुछ न कुछ व्याधी होते ही रहते है। कितना भी सूक्ष्मतः नियमों का पालन करे तो भी ऐसे लोग वारंवार व्याधिग्रस्त होते ही है। परिणामस्वरूप उनके आजूबाजू में रहनेवाले लोगो का आयुर्वेद से विश्वास उठ जाता है। क्योंकि अत्यंत सूक्ष्मतः नियमों का पालन करके भी सदैव रोगी रहनेवाला उनके सामने ही होता है।
एक ऐसा सामान्य नियम है कि अच्छे कर्म करनेवाले लोगों को भगवान सदैव सुखी रखते है। पर वास्तव में भी ऐसा नही देखा जाता। उल्टा, जो व्यक्ति सज्जन है उसके नसीब में दुखो के पहाड़ ही रहते है और जो दुर्जन है, जो दूसरों को तकलीफ देता है वो अंतिम साँस तक सुखोपभोग ही करता रहता है। राजा जैसा जीवन व्यतीत करता है।
उपरोक्त दोनो स्थितियाँ देखकर एक सामान्य व्यक्ति का प्रकृति के इन नियमों से विश्वास उठ जाता है और ऐसा होना स्वाभाविक भी है। क्योंकि वो सीखा कुछ और है और देखता उसके एकदम विपरीत है। इसलिये ऐसा चित्र उसके मन मे उभरना एकदम स्वाभाविक है। ऐसी स्थिती जब व्याधियों के बारे में उत्पन्न होती है अर्थात सभी नियमों का सूक्ष्मातिसूक्ष्म रूप से पालन करने के बावजूद भी अगर रोग होता है तो आयुर्वेद ऐसे रोगों की गणना 'कर्मज' व्याधियों में करता है।
कर्मज व्याधियों को कैसे पहचाने?
कई बार ऐसा देखा जाता है कि एक साधारण सा व्याधी भी विशेष से विशेष चिकित्सा करने के बावजूद भी ठीक नही होता। उदाहरण के रूप में मुँह के छालों पर चर्चा करते है। अब मुँह में छाले होने के बाद सभी का एक सामान्य अनुभव ऐसा होता है कि अधिक से अधिक एक हफ्ते दस दिनों में मुँह के छाले ठीक हो जाते है। ठीक नही हुए तो रुग्ण को फॉलिक एसिड लेने की सलाह दी जाती है, उससे वो ठीक हो ही जाता है। अगर इससे भी ठीक नही हो, तो एक अंतिम उपाय के रूप में उसकी बॉयोप्सी की जाती है। पर वो भी सामान्य ही आती है और बहोत दिनों तक चिकित्सा करने के बावजूद भी अगर छाले ठीक नही हो रहे है, तो ऐसे व्याधी का अंतर्भाव कर्मज व्याधी में किया जाता है। कर्मज व्याधी में रुग्ण के आहारविहार में अधिकतम भूल नही रहती।
अगर कोई व्यक्ति सतत 15-20 वर्ष दारू पीता है और उसके बाद उसे लिवर सिरोसिस होकर अगर वो मृत्यु को प्राप्त हो जाये तो इस बात को तर्कसंगत रूप से समझा जा सकता है। परंतु जिसने कभी दारू को छुआ तक नही और जो आहारविहार के अधिकतम नियमो का पालन करता है ऐसे व्यक्ति को अगर लिवर सिरोसिस हुआ, तो इसे कर्मज व्याधी माना जाता है।
आयुर्वेद कुष्ठ (मतलब सभी चर्मरोग), उन्माद, अपस्मार, विसर्प (Pemphigus जैसे रोग), जलोदर, बवासीर जैसे रोगों को कर्मज मानता है। मतलब यह व्याधी भौतिक कारणों के बिना भी हो सकते है। इन रोगों की शरीर मे अभिव्यक्ति के लिए किसी भौतिक कारणों के सेवन की अनिवार्यता नही रहती। पूर्वजन्म कृत अथवा इहजन्म कृत पापकर्म के फलस्वरूप भी यह व्याधी हो सकते है ऐसा आयुर्वेद मानता है। इसके सिवा ऊपर बताए हुए मुँह के छालों जैसे क्षुद्र व्याधी भी की जो कोई भी चिकित्सा करने से ठीक नही होते, उन्हें कर्मज व्याधी मानना चाहिए।
कर्मज व्याधियों की चिकित्सा
चूँकि कर्मज व्याधियों की उत्पत्ति में भौतिक कारणों की लिप्तता नही होती, इसलिये इन व्याधियों में भौतिक चिकित्सा जरा भी फलदायी नही होती। कितनी भी सिद्ध चिकित्सा ही क्यो न हो, कर्मज व्याधियों में उससे कोई परिणाम मिलता ही नही। इन व्याधियों में परंपरागत चिकित्सा तब काम करती है, जब जिन कर्मो से इन व्याधियों की उत्पत्ति हुई है, उन कर्मो का क्षय हुआ हो तब। अन्यथा कितनी भी चिकित्सा करो ये व्याधी कभी ठीक नही होते। इसलिये एक अनुभव कई रुग्णों को आता है कि उन्हें जो व्याधी होती है, बड़े बड़े विशेषज्ञों द्वारा वर्षों तक उसकी चिकित्सा करने के बावजूद भी वो ठीक नही होता। वही व्याधी एक साधारणसा डॉक्टर (अर्थात जो विशेषज्ञ नही है) कुछ ही दिनों में ठीक कर देता है अथवा वो व्याधी अपने आप या कोई साधारणसे घरेलू उपायों से ही ठीक हो जाता है। इसका अर्थ यह नही होता कि उस व्याधी की चिकित्सा उन विशेषज्ञों की नही आती थी। पापरूपी कर्मो के आवरण का इन व्याधियों से जब क्षय हो जाता है तभी यह व्याधियाँ ठीक होती दिखाई देती है।
श्वित्र अर्थात कोढ ऐसा ही एक कर्मज व्याधी है। जब तक पापरूपी कर्मो का क्षय नही होता तब तक पूरी दुनिया घिसकर लगाओ तो भी यह ठीक नही होता। उल्टा कभी कभी तो चिकित्सा शुरू करते से ही बढ़ जाता है और कई बार बिना चिकित्सा से ही यकायक नष्ट हो जाता है।
कर्मज व्याधी की चिकित्सा में आयुर्वेद दैवव्यपाश्रय चिकित्सा करने का निर्देश करता है। दैवव्यपाश्रय चिकित्सा का अर्थ होता है स्तोत्र, मंत्र द्वारा चिकित्सा करना। स्तोत्र मंत्रो के उच्चारण के सिवाय मणिधारण, मंगलकर्म, होम करना एवम तीर्थस्थलों की यात्रा करना ये सभी कर्म इस चिकित्सा प्रकार में सम्मिलित होते है। साधारण बोलचाल की भाषा मे जिसे झाड़फूंक कहा जाता है, वह प्रकार भी दैवव्यपाश्रय चिकित्सा में सम्मिलित किया जा सकता है। परंतु ध्यान रहे, सांप्रत काल मे इस चिकित्सा के विशेषज्ञ बहोत ही कम रहे है इसलिये यह चिकित्सा प्रकार अपनाते वक्त आप किसी गलत व्यक्ति के चंगुल में नही फंस रहे है इस बात की खात्री कर लेना ठीक रहता है।
धर्मशास्त्र के अनुसार कोई भी पापकर्म का क्षय उसे भुगते बिना हो ही नही सकता। अर्थात उस पापकर्म का फल भुगतना ही पड़ता है और इस नियम से तो न प्रभु श्रीराम छूटे, न भगवान कृष्ण, न ही पितामह भीष्म। कुछ कर्मज व्याधी इन्ही पापकर्मों के फलस्वरूप उत्पन्न होते है। हालांकि दैवव्यपाश्रय चिकित्सा से ये रोग एकदम से ठीक तो नही होते, परंतु उनकी लक्षणों की तीव्रता, उनसे होनेवाले कष्टों को निश्चित रूप से कम किया जा सकता है। पापकर्म के फलस्वरूप उत्पन्न होनेवाला व्याधी अगर 2 वर्ष तक रहना ही है तो उसे कोई टाल ही नही सकता। पर मंत्र, स्तोत्रपठण जैसी दैवव्यपाश्रय चिकित्सा से उसको सह्य (सहन करने योग्य) जरूर बनाया जा सकता है। इसलिये अगर कोई व्याधी एक से अधिक डॉक्टरों द्वारा परंपरागत चिकित्सा करने के बावजूद भी ठीक नही हो रहा हो, तो उसे कर्मज व्याधी मानकर, उसके अनुसार उसकी चिकित्सा करने के लिए प्रवृत्त होना चाहिए। अस्तु। शुभम भवतु।
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